Monday, 21 March 2016

सबका जमघट: चले जावेद अख्तर "अनुपम खेर" बनने

सबका जमघट: चले जावेद अख्तर "अनुपम खेर" बनने: जावेद अख्तर साहब , मुझे आपके "भारत माता की जय" बोलने पर कोई आपत्ति नहीं है , यह आपका कर्तव्य है या कि आपकी इच्छा या आपका अध...

चले जावेद अख्तर "अनुपम खेर" बनने



जावेद अख्तर साहब , मुझे आपके "भारत माता की जय" बोलने पर कोई आपत्ति नहीं है , यह आपका कर्तव्य है या कि आपकी इच्छा या आपका अधिकार, वो आप समझिए पर जैसे आप बोलने के लिए स्वतंत्र हैं वैसे ही दूसरे के बोलने की स्वतंत्रता पर सवाल मत उठाईये और "अनुपम खेर" बनने के प्रयास में पैजामें से बाहर मत होईये।
आप उर्दू अदब की मशहूर हस्ती कैफी आज़्मी के दामाद हैं तो उसी उर्दू तहज़ीब की दो हस्तियाँ जानेसार अख्तर और सफिया अख्तर के बेटे भी हैं , ये तो छोड़िए आप उर्दू की शानदार शख्सियत मुज़्तर खैराबादी के पोते भी हैं जिन पर उर्दू गर्व करती है , फिर भी आपने अपनी आज़ादी का प्रयोग करके सीना ठोक ठोक कर कहा कि "आप नमाज़ नहीं पढ़ते"।
टीवी पर आपको मैने तमाम बार देखा है सीना ठोकते हुए कि आप "नास्तिक" हैं । तो किसी ने आज तक सवाल नहीं किया आपसे कि आप नमाज़ क्युँ नहीं पढ़ते या आप इमान क्युँ नहीं लाए , क्युँकि यह आपकी आज़ादी है कि आपका इमान क्या है और कितना है।
अवसरवाद आपका प्रमुख अस्त्र रहा है इसलिए राज्यसभा के विदाई भाषण में आपने फिर से राज्यसभा में आने के लिए जो अनुपम खेर बनने की कोशिश की , उस पर भी स्पष्ट हो जाएँ कि आप जावेद अख्तर हैं अनुपम खेर नहीं । और बहुत मुश्किल है आज के दौर में जावेद अख्तर सा नाम , हिन्दुस्तान में होना ।
शाहरुख खान का नाम सुना होगा आपने ?
उन्होंने अपने घर में मंदिर बनाया है और पूरे परिवार के साथ वहाँ पूजा करते सारा जीवन फोटो खिंचाते रहे हैं , पर क्या हुआ उनका ?
देश की असहिष्णुता की लाखों लोगों ने आलोचना की पर शाहरुख खान का बोलना उनको समझा गया कि वह मुसलमान नाम के हैं।
आमिर खान ?
याद है नाम ? ब्राह्मण पत्नी का डर बता देना आजतक भारी पड़ा हुआ है उनके लिए कि बराबर करते फिर रहे हैं क्युँकि वह मुसलमान नाम के हैं। सालों तक बिना पैसे लिए Incredible India के Brand Ambassador बन कर भारत के tourism को खूब बढ़ावा दिया, सत्यमेव जयते से समाज में जाग्रति लाये पर मुसलमान होना भारी पड़ गया
खालिद उमर ?
वह भी कम्युनिस्ट ही है आपकी ही तरह जिसे 10 साल बाद पता चला कि वह मुसलमान है ।
सब तो छोड़िए, सलमान खान , देश के प्रधानमंत्री के साथ पतंगे उड़ाईं हैं , उनके सरकारी मेहमान रहे हैं ।
और जावेद अख्तर साहब ?
जो आज आप कर रहे हैं ना वो वह बाप बेटे लोग सालों से करते रहे हैं, यहाँ तक कि "गणपति" को अपने घर में स्थापित करके "गणपति बप्पा मोरया" हर साल करते रहे हैं और विसर्जन करते रहे हैं ।उनको कभी नमाज़ पढ़ते नहीं देखा गया पर गणपति की पूजा करते और विसर्जित करते हर साल देखा गया।
याकूब मेमन के फाँसी का विरोध इस देश में करोड़ों ने किया पर "सलमान खान" होना उनको भारी पड़ गया, गालियाँ खाकर मजबूरी में ट्वीट हटाने पड़े और सफाई देनी पड़ी ।
जावेद अख्तर साहब जब यहाँ बिकाऊ और उन्मादी भीड़ "अखलाक" की तरह घेर लेती है ना ? तो वह यह नहीं देखती कि आप कम्युनिस्ट हैं या "भारत माता की जय" बोलने वाले , नाम मुसलमान होना बहुत है "अखलाक" की तरह कूँच देने के लिए ।
आपको यकीन ना हो तो शाहरुख , सलमान , आमिर और खालिद उमर से पूछ लें जो आप की ही तरह बस नाम के ही मुसलमान हैं ।
इसलिए बेहतर होगा आप अनुपम खेर बनने का प्रयास ना करिए, आपको भारत माता की जय बोलना है बोलते रहिए पर आप मुझे मेरे एक सवाल का जवाब जरूर दे दीजिएगा कि संसद के पहले आपने आखरी बार "भारत माता की जय" कब कहा था ?
शायद कभी नहीं ।
ड्रामे का रचनाकार ड्रामा ही करेगा ।

Sunday, 20 March 2016

देश में चरमपंथ को लेकर दी गई फांसी में 93.5 फ़ीसदी सज़ा दलितों और मुस्लिमों को मिली है, ऐसा पक्षपात क्यों, और कैसे ??


महात्मा गांधी ने अक्तूबर, 1931 में डा. बीआर अंबेडकर के बारे में कहा था, “उनके पास नाराज़ होने, कटु होने की तमाम वजहें हैं. वे हमारा सिर नहीं फोड़ रहे हैं तो ये उनका आत्म संयम है.”इस बयान से ज़ाहिर है कि अंबेडकर और उनके समुदाय के साथ हुए अत्याचारों की पृष्ठभूमि में उनके द्वारा कटु शब्दों के इस्तेमाल को महात्मा गांधी ग़लत नहीं मानते थे. बहरहाल, मैं अभी सतारूढ़ पार्टी के ख़िलाफ़ एक दूसरे विश्वविद्यालय में छात्रों के विरोध प्रदर्शन के बारे में सोच रहा हूं.

दिल्ली में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अफ़ज़ल गुरू की बरसी के मौक़े पर हुई विरोध सभा के मुद्दे पर कुछ छात्रों के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज कराया गया है.
देशद्रोह “वह अपराध है जिसके तहत कुछ कहने, लिखने और कुछ अन्य काम करने से सरकार की अवज्ञा करने को प्रोत्साहन मिलता है.’’


पूर्वी दिल्ली से भारतीय जनता पार्टी के सांसद महेश गिरी ने इस मामले में एफ़आईआर दर्ज कराई है. उन्होंने अपनी लिखित शिकायत में इन छात्रों को संविधान विरोधी और देशद्रोही तत्व कहा है.


गिरी ने गृह मंत्री राजनाथ सिंह और मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी को भी ख़त लिखकर, “इस तरह के शर्मनाक और भारत विरोधी गतिविधियों के दोबारा नहीं होने देने के लिए अभियुक्तों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई करने की अपील की थी.”


यह हैदराबाद में हुई घटना को दुहराने जैसा लग रहा है, जहां बीजेपी ने याक़ूब मेमन की फांसी के ख़िलाफ़ छात्रों के विरोध प्रदर्शन पर सख़्त कार्रवाई की थी. इस मामले का दुखद पहलू ये रहा है कि एक छात्र ने आत्महत्या कर ली.


हालांकि जेएनयू ने कहा कि उसने इस विरोध प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी थी और उसने मामले की जांच के लिए एक कमेटी बनाई है.


लेकिन इस कमेटी में प्रतिनिधित्व को लेकर सवाल उठ रहे हैं. छात्र संघों का कहना है कि जांच कमेटी में उपेक्षित और हाशिए पर रहे समुदायों का कोई प्रतिनिधि शामिल नहीं किया गया है.


मेरे ख़्याल से भारतीय जनता पार्टी के सामने इस मामले में विकल्प था, छात्रों पर आरोप लगाने के बदले, उसे इस मुद्दे को समझने की कोशिश करनी चाहिए, जो सीधे जाति से जुड़ा पहलू है.


हैदराबाद में याक़ूब मेमन की फांसी के ख़िलाफ़ दलित क्यों विरोध प्रदर्शन कर रहे थे? जेएनयू में मुस्लिमों पर इतना ध्यान क्यों है?


जब भी किसी कमेटी से जांच कराने की बात होती है तो छात्र हाशिए पर रहे समुदायों के प्रतिनिधियों की बात क्यों करते हैं? हक़ीक़त यही है कि भारत में दलितों और मुस्लिमों को ही सबसे ज़्यादा फांसी की सज़ा दी गई है.


नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी से प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक़, मृत्युदंड पाने वालों में कुल 75 फ़ीसदी और चरमपंथ को लेकर दी गई फांसी में 93.5 फ़ीसदी सज़ा दलितों और मुस्लिमों को मिली है. ऐसे में पक्षपात का मुद्दा उभरता है.


मालेगांव धमाकों का उदाहरण देते हुए कुछ लोग यह आरोप लगाते हैं कि अगर चरमपंथी गतिविधियों में सवर्ण हिंदुओं के शामिल होने का मामला हो तो सरकार सख़्ती नहीं दिखाती है.


बेअंत सिंह के हत्यारों को फांसी देने की जल्दी नहीं है. राजीव गांधी के हत्यारों की सज़ा कम कर उसे उम्रक़ैद में तब्दील कर दिया गया है.


इन लोगों को भी चरमपंथ का दोषी पाया गया था. लेकिन सबको समान क़ानून से कहां आंका जा रहा है?


इन सबमें मायाबेन कोडनानी को छोड़ ही दें, जिन्हें 95 गुजरातियों की हत्या के मामले में दोषी पाया गया था, लेकिन वे जेल में भी नहीं हैं.


दूसरा मुद्दा आर्थिक है.
दलित और मुस्लिम ग़रीब लोग हैं. अदालत में सुनवाई के दौरान अफ़ज़ल गुरु को लगभग नहीं के बराबर क़ानूनी प्रतिनिधित्व मिल पाया था.


इन वास्तविकताओं को देखते हुए, इसमें बहुत अचरज नहीं होना चाहिए कि दलित, मुस्लिम और उनके समर्थक सरकार का विरोध कर रहे हैं. उन्हें नाराज़ होने का पूरा हक़ है.
सवर्ण इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि हर भारतीय को इस भ्रम में जीना चाहिए कि हम एक पूर्ण समाज हैं और हर किसी को इसके सामने झुकना चाहिए.


हिंदुत्व मध्यम वर्ग और उच्च वर्गों के लिए मसला है. यह आरक्षण से घृणा करता है क्योंकि उसे लगता है कि यह उनको मिल रही सुविधाओं में अतिक्रमण है.


यही वजह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरक्षण को पसंद नहीं करता और इस मुद्दे पर संघ के बयानों के चलते चुनावों में बीजेपी मुश्किल में आई थी.


प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया भी विपक्ष पर झूठ गढ़ने का आरोप रहा है. लेकिन ज़मीनी सच्चाई बिलकुल साफ़ है.


दलित अपनी आवाज़ उठा रहे हैं और अपने हक़ के लिए खड़े हो रहे हैं. इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है. अगर उनकी भाषा में असंयम हो तो भी उन्हें अपराधी की तरह से नहीं देखा जा सकता.


सरकार के लिए अहम ये है कि उनसे जुड़े, उनकी बात सुने, उनके तर्क सुने, केवल उनके नारों पर नहीं जाए.


लेख की शुरुआत में मैंने गांधी जी की बुद्धिमता का उदाहरण दिया है. उसकी तुलना हिंदुत्व के नेताओं की पहले हैदाराबाद और फिर दिल्ली में की गई कार्रवाई से करके देखिए.


हमें इस मामले पर परिपक्व समझ दिखाना चाहिए, जब तक सरकार इस दिशा में कोशिश करती भी नहीं दिखेगी तब तक हमें इस बात पर अचरज नहीं होना चाहिए कि अब तक दबे और पीड़ित रहे लोग सरकार की अवज्ञा के लिए प्रोत्साहित करने वाले काम करते रहेंगे.


(ये लेखक के निजी विचार हैं. वे एमनेस्टी इंटरनेशनल के कार्यकारी निदेशक हैं.)

संघ और भाजपा का राष्ट्रवादी पाखंड


अफजल गुरु जेएनयू में आतंकवादी है, लेकिन भाजपा पीडीपी के साथ सरकार भी बना सकती है जो अफजल गुरु को 'शहीद' कहकर महिमामंडित करती है. संघ-भाजपा को यह पता है कि वे पूरी तरह फेल हैं और उनके लिए एकमात्र आशा उनके वे तूफानी घुड़सवार हैं जो किसी को विरोध नहीं करने दे सकते. देश को उनका डरावना चेहरा नहीं दिखे इसलिए वे मीडियाकर्मियों पर हमले करते हैं.अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकताओं ने हैदराबाद और जेएनयू में ‘मुखबिर’ की तरह सक्रियता दिखाई. देश जानना चाहता है कि हरियाणा में 9 दिनों के उपद्रव के दौरान वे कहां थे? वे वहां जातीय झगड़े की आग को बुझाते हुए नहीं दिखे. क्या वे वहां भीड़ का हिस्सा थे? 


संघ-भाजपा की ‘राष्ट्रवादी’ सरकार सभी ‘राष्ट्रविरोधियों’ को प्रताड़ित कर रही है लेकिन इन ‘राष्ट्रवादी’ भारतीयों को लेकर कुछ तथ्यों पर गौर करना चाहिए. देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल के मुताबिक, यह आरएसएस और हिंदू महासभा जैसे हिंदुत्ववादी संगठन थे जो गांधी की हत्या के जिम्मेदार थे. यह कुनबा आज भी उनकी हत्या को वध कहकर महिमामंडित करता है. 14 अगस्त 1947 को आरएसएस के मुखपत्र ‘आर्गेनाइजर’ ने लिखा था, ‘बदकिस्मती से जो लोग सत्ता में आए हैं, वे हमारे हाथों में तिरंगा पकड़ा देंगे लेकिन हिंदू इसे कभी स्वीकृति व सम्मान नहीं देंगे. तीन अपने आप में अशुभ है और तिरंगे में तीन रंग हैं जो निश्चित तौर पर बुरा मनोवैज्ञानिक असर छोड़ेंगे. यह देश के लिए हानिकारक होगा.’ जिन्होंने गांधीजी को मारा, जिन्होंने आजादी के बाद तिरंगे की तौहीन की, वे ‘राष्ट्रवादी’ हैं और जो युवा भारतीय चाहते हैं कि भारतीय राष्ट्र-राज्य सबके लिए मूलभूत अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों पर अमल करे, उनकी अदालत के फैसले से पहले ही ‘आतंकवादी’ के रूप में ब्रांडिंग की जा रही है.

संघ भाजपा के जो कार्यकर्ता वंदेमातरम गा रहे हैं, उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ इसे कभी नहीं गाया. उन्होंने 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकारें बनाई थीं जबकि कांग्रेस पर प्रतिबंध लगा था. जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस सेना बनाकर भारत को आजाद कराने का प्रयास कर रहे थे तब हिंदुत्ववादी संगठनों ने मिलकर अंग्रेजी सेना के लिए ‘भर्ती कैंप’ लगाए थे. अब ये ‘राष्ट्रवादी’ लोग लोकतंत्र को नष्ट करने के लिए वंदेमातरम का इस्तेमाल कर रहे हैं. 

बंटवारा करना संघ-भाजपा नेताओं और उनकी हिंदूवादी राजनीति के जीन में है. अपनी क्रूर राष्ट्रविरोधी विचारधारा के साथ वे न सिर्फ मुस्लिमों, ईसाइयों और दलितों के खिलाफ हैं बल्कि वे बहुसंख्यक समुदाय की भी एकजुटता के लिए खतरा हैं. हरियाणा के इतिहास में यह पहली बार है जब हम देख रहे हैं कि जाट और पंजाबी के बीच गहरे तक ध्रुवीकरण हुआ है. डॉ. आंबेडकर ने बहुत पहले कहा था कि ‘हिंदुत्व की राजनीति सिर्फ लोगों को बांटती है, इस तरह वह भारत का विनाश कर रही है.’ 
संघ-भाजपा के शासकों को यह महसूस हो रहा है कि वे जनता के बड़े हिस्से का समर्थन खो चुके हैं. वे अपने विरोधियों का ध्यान दूसरी तरफ केंद्रित करना चाहते हैं. यह भी एक तरह का राष्ट्रविरोधी कार्य है. वे अपना पुराना हिंदुत्ववादी एजेंडा पुनर्जीवित कर रहे हैं
कोई नहीं जानता कि हरियाणा और भारत हिंदुत्व की राजनीति के साथ कैसे रहेंगे. उन्होंने जेएनयू को राष्ट्रद्रोहियों का अड्डा घोषित कर दिया, लेकिन हरियाणा के बारे में क्या कहेंगे जहां पर बड़े पैमाने पर लोगों की जानें गईं और संपत्तियों को तहस-नहस किया गया. जेएनयू के राष्ट्रविरोधी हरियाणा में नहीं हैं और यह सब संघ-भाजपा के शासन में हो रहा है. इतिहास हरियाणा के हिंदूवादी शासकों को कभी माफ नहीं करेगा जिन्होंने हरियाणवी लोगों को जाट, पंजाबी और सैनी आदि में बांट दिया. हमारी सेना, जो हमारे देश का गौरव है, जिसका काम सीमा की सुरक्षा करना है, वह अपने ही लोगों पर गोलियां चला रही है. 

अफजल गुरु जेएनयू में आतंकवादी है, लेकिन भाजपा पीडीपी के साथ सरकार भी बना सकती है जो अफजल गुरु को ‘शहीद’ कहकर महिमामंडित करती है. संघ-भाजपा को यह पता है कि वे पूरी तरह फेल हैं और उनके लिए एकमात्र आशा उनके वे तूफानी घुड़सवार हैं जो किसी को विरोध नहीं करने दे सकते. देश को उनका डरावना चेहरा नहीं दिखे इसलिए वे मीडियाकर्मियों पर हमले करते हैं. उन्होंने बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय भी ऐसा ही किया था. वे भाड़े के गुंडे जो मीडिया, छात्रों और अध्यापकों पर हमले करते हैं, ‘राष्ट्रवादी’ भावना की बातें करते हैं. 

जिन हिंदुत्ववादी अपराधियों ने गांधी जी को मारा, जिन्होंने मुस्लिम लीग के साथ 1942 में तब सरकार चलाई जब ब्रिट्रिश शासन ने कांग्रेस को प्रतिबंधित कर दिया था, नेताजी जब सेना गठित कर भारत को आजाद कराने की कोशिश कर रहे थे तब अंग्रेजी सेना के लिए भर्ती कैंप चलाए, भारतीय जेल से इस्लामिक आतंकी अजहर मसूद को कंधार छोड़ने गए, नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी की हत्या की, शहीदे आजम के नाम पर बन रहे एयरपोर्ट का नाम बदलकर एक आरएसएस के बिचौलिये के नाम पर रख दिया और अफजल गुरु को शहीद घोषित करने वाली पीडीपी के साथ जम्मू और कश्मीर में सरकार चला रहे हैं, वे ‘राष्ट्रवादी’ हैं. यदि ये अपराधी ‘राष्ट्रवादी’ हैं तो एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत के राजनीतिक भाग्य का अंत हो चुका है. 

संघ-भाजपा के शासकों को यह महसूस हो रहा है कि वे जनता के बड़े हिस्से का समर्थन खो चुके हैं. वे अपने विरोधियों का ध्यान दूसरी तरफ केंद्रित करना चाहते हैं. यह भी एक तरह का राष्ट्रविरोधी कार्य है. वे अपना पुराना हिंदुत्ववादी एजेंडा पुनर्जीवित कर रहे हैं. उनके गुरु गोलवलकर ने अपनी किताब ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में लिखा था कि मुस्लिम, ईसाई और वामपंथी इस देश के एक, दो और तीन नंबर के दुश्मन हैं. 

गोलवलकर की किताब ‘वी आर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ के मुताबिक, राष्ट्र पांच निर्विवादित तत्वों- देश, जाति, धर्म, संस्कृति और भाषा से बनता है. हालांकि, सावरकर की तरह उन्होंने भी संस्कृति को धर्म के साथ जोड़ा और इसे हिंदुत्व कहा. उनके अनुसार हिंदू एक महान तथा विशिष्ट राष्ट्र थे क्योंकि हिंदुओं की धरती हिंदुस्तान में रहने वाले केवल हिंदू यानी कि आर्य नस्ल के लोग थे. दूसरे, हिंदू एक ऐसी नस्ल से थे जिसके पास एक ऐसे समाज की विरासत थी जिसमें एक साझा रीति-रिवाज, साझा भाषा, गौरव और विनाश की साझा स्मृतियां थीं. संक्षेप में यह एक समान उद्भव स्रोत वाली ऐसी आबादी थी जिसकी एक साझा संस्कृति है. इस प्रकार की जाति राष्ट्र के लिए एक महत्वपूर्ण अवयव है. यहां तक कि अगर वे विदेशी मूल के भी थे तो भी वे निश्चित रूप से मातृ नस्ल में घुलमिल गए थे. उन्हें मूल राष्ट्रीय नस्ल के साथ न केवल इसके आर्थिक-सामाजिक जीवन से अपितु इसके धर्म, संस्कृति तथा भाषा के साथ एकरूप हो जाना चाहिए, नहीं तो ऐसी विदेशी नस्लें कुछ निश्चित परिस्थितियों के तहत एक राजनैतिक उद्देश्य से एक साझा राज्य की सदस्य ही मानी जा सकती हैं; लेकिन वे कभी भी राष्ट्र का अभिन्न हिस्सा नहीं बन सकतीं. यदि मातृ नस्ल अपने सदस्यों के विनाश या अपने अस्तित्व के सिद्धांतों को खो देने के कारण नष्ट हो जाती है तो स्वयं राष्ट्र भी नष्ट हो जाता है. नस्ल राष्ट्र का शरीर है और इसके पतन के साथ ही राष्ट्र का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है. इस प्रकार सावरकर और उन्हीं की तर्ज पर गोलवलकर नस्ली शुद्धता को हिंदू राष्ट्र निर्माण का आवश्यक साधन मानते थे. उनके राष्ट्रवाद में नस्लों के मिलन या अंतर्संबंधों के लिए कोई जगह नहीं थी. 

गोलवलकर के अनुसार, ‘हम वह हैं जो हमें हमारे महान धर्म ने बनाया है. हमारी नस्ली भावना हमारे धर्म की उपज है और हमारे लिए संस्कृति और कुछ नहीं बल्कि हमारे सर्वव्यापी धर्म का उत्पाद है, इसके शरीर का अंग जिसे इससे अलग नहीं किया जा सकता. एक राष्ट्र एक राष्ट्रीय धर्म और एक संस्कृति को धारण करता है तथा उसे कायम रखता है क्योंकि ये राष्ट्रीय विचार को संपूर्ण बनाने के लिए आवश्यक हैं.’  

गोलवलकर की हिंदू राष्ट्रीयता का सबसे महत्वपूर्ण अवयव नस्ल या नस्ली भावना थी, जिसे उन्होंने ‘हमारे धर्म की संतान’ के रूप में परिभाषित किया. उनके अनुसार, ‘हिंदुस्तान में एक प्राचीन हिंदू राष्ट्र है और इसे निश्चित तौर पर होना ही चाहिए और कुछ और नहीं- केवल एक हिंदू राष्ट्र. वे सभी लोग जो राष्ट्रीय यानी कि हिंदू नस्ल, धर्म, संस्कृति और भाषा को मानने वाले नहीं होते वे स्वाभाविक रूप से वास्तविक ‘राष्ट्रीय’ जीवन के खांचे से बाहर छूट जाते हैं… केवल वही राष्ट्रीय देशभक्त हैं जो अपने हृदय में हिंदू नस्ल और राष्ट्र के गौरवान्वीकरण की प्रेरणा के साथ कार्य को उद्धृत होते हैं और उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं. बाकी सभी या तो गद्दार हैं और राष्ट्रीय हित के शत्रु हैं या अगर दयापूर्ण दृष्टि अपनाएं तो बौड़म हैं.’ 


‘वे सभी लोग जो राष्ट्रीय यानी कि हिंदू नस्ल, धर्म, संस्कृति और भाषा को मानने वाले नहीं होते वे स्वाभाविक रूप से वास्तविक ‘राष्ट्रीय’ जीवन के खांचे से बाहर छूट जाते हैं… केवल वही राष्ट्रीय देशभक्त हैं जो अपने हृदय में हिंदू नस्ल और राष्ट्र के गौरवान्वीकरण की प्रेरणा के साथ कार्य को उद्धृत होते हैं और उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं. बाकी सभी या तो गद्दार हैं और राष्ट्रीय हित के शत्रु हैं या अगर दयापूर्ण दृष्टि अपनाएं तो बौड़म हैं’
बेशक गोलवलकर की यह परिभाषा पूरी तरह से हिंदू राष्ट्र के सावरकर माडल पर आधारित है और मुस्लिमों, ईसाइयों, या अन्य गैर हिंदू अल्पसंख्यकों के हिंदू राष्ट्र का हिस्सा होने के दावे को पूरी तरह खारिज करती है. गोलवलकर के अनुसार, ‘वे सभी जो इस विचार की परिधि से बाहर हैं राष्ट्रीय जीवन में कोई स्थान नहीं रख सकते. वे राष्ट्र का अंग केवल तभी बन सकते हैं जब अपने विभेदों को पूरी तरह समाप्त कर दें, राष्ट्र का धर्म, इसकी भाषा व संस्कृति अपना लें और खुद को पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में समाहित कर दें. जब तक वे अपने नस्ली, धार्मिक तथा सांस्कृतिक अंतर को बनाए रखते हैं वे केवल विदेशी हो सकते हैं, जो राष्ट्र के प्रति या तो मित्रवत हो सकता है या शत्रुवत. 

पूरी तरह से उनका हिंदूकरण या फिर नस्ली सफाया, भारत में अल्पसंख्यकों की समस्या से निपटने के लिए गोलवलकर ने यही मंत्र सुझाया था. 1925 में अपने निर्माण के बाद से ही आरएसएस ने कभी इसे अनदेखा नहीं किया. उनके अनुसार, मुस्लिमों और ईसाइयों को, जो कि बाहरी हैं, निश्चित तौर आबादी के प्रमुख जन, राष्ट्रीय नस्ल के साथ खुद को पूरी तरह समाहित कर देना चाहिए. उन्हें निश्चित तौर पर राष्ट्रीय नस्ल की संस्कृति और भाषा को अपना लेना चाहिए और अपने विदेशी मूल को भुलाकर अपने अलग अस्तित्व की संपूर्ण चेतना को त्याग देना चाहिए. अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें राष्ट्र के रहमो-करम पर राष्ट्र की सभी संहिताओं और परंपराओं से बंधकर केवल एक बाहरी की तरह रहना होगा, जिनको किसी अधिकार या सुविधा की तो छोड़िए, किसी विशेष संरक्षण का भी हक नहीं होगा. विदेशी तत्वों के लिये बस दो ही रास्ते हैं, या तो वे राष्ट्रीय नस्ल में पूरी तरह समाहित हो जाएं और यहां की संस्कृति को पूरी तरह अपना लें या फिर जब तक राष्ट्रीय नस्ल अनुमति दे वे यहां उसकी दया पर रहें और राष्ट्रीय नस्ल की इच्छा पर यह देश छोड़कर चले जाएं. 

इन ‘राष्ट्रवादियों’ ने आजादी आंदोलन में अंग्रेजों का साथ दिया और भारत को हिंदू पाकिस्तान बनाने के लिए प्रतिबद्ध रहे. आज वे जेएनयू के छात्रसंघ अध्यक्ष और अन्य छात्रों के लिए सख्त सजा की बात करते हैं, लेकिन यही ‘राष्ट्रवादी’ उस समय कुंभकरण मोड में चले जाते हैं, जब देश के दूसरे हिस्से में हिंदुत्ववादी कैडर 30 जनवरी को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ‘वध’ का उत्सव मनाता है. बेशक, संघ और भाजपा के पाखंड को कोई भी मात नहीं दे सकता.


Courtesy: Tehelkahindi.com