कुछ दिनों पहले दिल्ली
में जैश-ए-मोहम्मद से संबंध रखने के आरोप में 13 लोगों
को हिरासत में लिया गया था। बताया गया था कि ये लोग दिल्ली में भी पठानकोट जैसा
हमला करना चाहते थे। उनके पास से विस्फोटक और टाइमर आदि भी पाए गए थे। सारे टीवी
चैनलों ने इसे चलाया, अखबारों ने हेडिंग बनाई। वेबसाइटों पर यह
खबर चली। पाठकों ने कॉमेंट लिखे। नीचे देखें नेट पर चली कुछ हेडलाइन्स।
आप देखेंगे, इंडिया
टुडे और पत्रिका ने तो
साफ कह दिया कि ये सभी आतंकवादी हैं जबकि नवभारत
टाइम्स और NDTV इंडिया ने
पत्रकारिक ज़िम्मेदारी का ख़्याल रखते हुए उनको केवल संदिग्ध आतंकवादी बताया है।
वैसे NDTV इंडिया और नवभारत
टाइम्स की ख़बरों में भी फ़र्क़ है। NDTV इंडिया ने जहां
केवल 3 को संदिग्ध आतंकी लिखा है, वहीं
नवभारत टाइम्स ने सभी 13 को संदिग्ध आतंकी बताया है।
हिरासत में लिए गए लड़कों के परिवारवाले कहते रहे
कि ये बच्चे आतंकवादी नहीं हैं। लेकिन ऐसा तो सभी कहते हैं। कौन इन पर यक़ीन करता
है? मीडिया भी क्यों करे?
आरोपियों से पूछताछ हुई। तीन दिन बाद 4 लोगों
को छोड़ दिया गया और कल-परसों बाक़ी 6 को भी छोड़ दिया
गया। देखें नीचे इन ख़बरों के स्क्रीनशॉट।
अब आप सोच रहे
होंगे, ‘जैश के इन आतंकवादियों’ को जैसा
कि इंडिया टुडे और पत्रिका ने पहले
ही दिन बताया था, चार-पांच दिनों बाद क्यों छोड़ दिया गया। क्योंकि
उनके खिलाफ़ जैश से जुड़े होने या किसी साज़िश में शामिल होने सबूत नहीं मिले।
नहीं मिले तो पहले उनको आतंकवादी क्यों बताया था? है कोई
जवाब?
नहीं है। तो अब क्या करें? करना
क्या, जाओ घर, अब हो
गया मामला ख़त्म।
घर जाओ! क्यों घर जाओ? क्यों
कोई उस पुलिस और उस मीडिया से सवाल नहीं करे जिसने पहले दिन इन सबको आतंकवादी ठहरा
दिया था? मैं यहां स्पष्ट कर दूं कि जब मैं मीडिया की बात करता
हूं तो नवभारत टाइम्स को भी
कठघरे में खड़ा करता हूं – ख़ासकर वेबसाइट को। देखें, हमारी
साइट पर छपी यह ख़बर जो हमने हमारे सहयोगी समाचार पत्र सांध्य
टाइम्स से ली थी। हेडिंग में भले ही संदिग्ध शब्द का
इस्तेमाल किया गया हो मगर देखिए, इसकी पहली लाइन क्या
कहती है!
पहली लाइन है – राजधानी
को दहलाने की साज़िश रच रहे 13 लोग पुलिस के हत्थे चढ़े हैं। यानी न
कोर्ट, न कचहरी, न वक़ील,
न दलील, रिपोर्टर साहब ने कर दिया फ़ैसला –
वे 13 लोग दिल्ली को दहलाने की साज़िश रच रहे थे। आगे
लिखा है – ये लोग विस्फोटक जमा करके बम बना रहे थे… इनके
पास से बम बनाने में इस्तेमाल होनेवाली बैटरी, टाइमर
आदि मिले हैं।
अब जब 13 लोगों
के पास बम बनाने का सामान, टाइमर, बैटरी
आदि मिले तो साफ़ है कि वे सारे के सारे आतंकवादी हैं। ठीक?
तो फिर 13 में से 10
आख़िर रिहा कैसे हो गए? जब इतना सारा सबूत
था तो अब पुलिस क्यों कह रही है कि एक भी सबूत नहीं मिला इनके ख़िलाफ़? क्या वे
सारे सबूत फ़र्ज़ी थे? क्या वह झूठ था जो पुलिस ने बताया था?
क्या वह झूठ था जो रिपोर्टर साहब ने लिखा था?
सच्चाई यह है कि विस्फोटक रखने के आरोप में केवल
तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया है और बाक़ी का इससे कोई
संबंध नहीं था। लेकिन मीडिया के बड़े हिस्से ने ऐलान कर दिया –
जैश से संबंध रखनेवाले 13 आतंकी ग़िरफ़्तार।
कुछ ने संदिग्ध लगाया, कुछ ने नहीं। संदिग्ध लगाया तो वह भी ऐसे
मानो एक रस्म निभा रहे हों। संदेश यही है कि ग़िरफ़्तार होनेवाला हर मुसलमान
आतंकवादी हैं जब तक कि वह निर्दोष न साबित हो जाएं। Guilty unless proved
innocent!
अभी कुछ ही दिनों पहले मालेगांव बम धमाके में
गिरफ़्तार 9 लोगों को कोर्ट ने रिहा कर दिया। ये सभी मुस्लिम
थे और उनको 2006 में ATS ने
ग़िरफ्तार किया था। मामला लंबा चला। वे जेल में सड़ते रहे। कोई सबूत नहीं मिला तो
NIA ने दो साल पहले कह दिया
कि उनके ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं है। और अब उनको बरी और रिहा कर दिया गया है। उन
लोगों का दोष इतना था कि वे मुसलमान थे और शायद प्रतिबंधित संगठन सिमी से जुड़े
हुए थे। यही काफ़ी था उनको मालेगांव धमाके से जोड़ने के लिए जिसके बारे में बाद
में पता चला कि इस धमाके के पीछे भगवा संगठनों का हाथ है। स्वामी असीमानंद का
क़बूलनामा NIA के पास है हालांकि असीमानंद अब उस क़बूलनामे को
वापस ले चुके हैं।
अब हाल यह हो गया है कि जब पुलिस किसी को
ग़िरफ़्तार करके उसे आतंकवादी बताती है और मीडिया ‘आतंकवादी-आतंकवादी’
चिल्लाता है तो विश्वास कम और शक ज़्यादा होता है। इसके लिए दोषी
जितनी पुलिस है, उससे ज़्यादा दोषी मीडिया है जिसने मान लिया है
कि पुलिस जो कहेगी, उसको दस गुना बढ़ाकर लोगों को बताना है
क्योंकि ये ख़बरें अच्छी चलती हैं। फिर जब चार दिन बाद पुलिस या कई साल बाद अदालत
इन मीडिया-घोषित आतंकवादियों को रिहा करती है तो वह उस ख़बर को कोने में डाल देता
है या गोल ही कर देता है। कोई माई का लाल पत्रकार नहीं है जो
पलटकर पुलिस और मीडिया से पूछे कि भैये, पहले
कैसे कह रहे थे कि यह आतंकवादी है? जो
पूछता है वह देशद्रोही और पाकिस्तानी एजंट ठहरा दिया जाता है
जैसे कि मुझे ठहराया जाएगा यह पोस्ट लिखने के लिए।
आपमें से कई को मेरी यह पोस्ट हज़म नहीं हो रही
होगी। ऐसे पाठकों से केवल एक सवाल पूछता हूं- कल यदि पुलिस आपको किसी महिला से रेप
करने या आपके घर की किसी महिला को धंधा करने के आरोप में हिरासत में ले ले,
और यही मीडिया वाले आपको रेपिस्ट और आपके परिवार की उस भद्र महिला को
धंधेवाली बताते हुए नाम और फ़ोटो अख़बार में छाप दें …
तो आपको कैसा लगेगा? कैसा लगेगा? माफ़ कर
पाएंगे कभी उस पुलिसवाले को… और उस मीडिया को… और उस
समाज को जो इस ख़बर को चटखारे ले-लेकर शेयर करेगा?
आतंकवादी का ठप्पा लगना उतना ही अपमानजनक
और तक़लीफ़देह है जितना रेपिस्ट या वेश्या कहलाया जाना। सोचिए। महसूस
कीजिए उनकी पीड़ा को जिनपर यह आरोप लगा है। उनके परिवारवालों के बारे में सोचिए एक
बार।
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