Monday, 20 June 2016

उत्तर-प्रदेश में 3 करोड़ मुसलमानों की अहमियत तीन पैसे की नहीं ! जानिए क्यों

सामाजिक न्याय के पुरोधा पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह कहते थे कि,” मुसलमानो को वोट बैंक नहीं वोट मैनेजर बनना चाहिए. लेकिन हालात बताते हैं यह वोट बैंक मैनेजर तो नहीं बना लेकिन कंडक्टर या कह लीजिए पियून ज़रूर बन चुका है जिसके नेताओं के हाथ मे 3 करोड़ की कीमत वाला उत्तर प्रदेश विधान सभा का टिकट का अवसर भी है, ज़ुबान पर ताले और अपमान फ्री मे है साथ ही उसके उद्योग धंधे पर ताले पड़ चुके है!

उत्तर प्रदेश मे समाजवादी पार्टी में बड़ा कद रखने वाले शिवपाल यादव ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे सच्चर कमेटी का हवाला देते हुए कहा है कि 18% मुसलमानो को आरक्षण देने मे कई तकनीकी खामिया है. अगर देखा जाए तो ऐसे बयान बड़े हिम्मत वाले है, शिवपाल यादव जैसे नेता कम है जो संविधान के दायरे मे साफ बात आवाम को बताए लेकिन सवाल यह उठता है कि ऐसे वादे राजनैतिक दलों द्वारा क्यों किये जाते हैं और लोग उनके धोखे मे फसते ही क्यों है या शिवपाल यादव ने यह बात वादे करते वक़्त अपनी समाजवादी पार्टी को क्यो नहीं बतायी थी?

मुसलमानो मे ज़ात और उनके पिछड़ेपन को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाने की ज़रूरत है, भारत में वर्ण व्यवस्था समाज के हर तबके में मौजूद है, यहां पंडित है, जुलाहे हैं, भंगी कहे जाने वाले दलित भी हैं ! जिससे मुसलमान भी नहीं बचा सका।

हाँ सिर्फ, इस्लाम के आगमन पर उलेमाओ और सूफियो की तहरीक से इतना ज़रूर हुआ कि यह मस्जिदों मे तो एक शफ मे खड़े होकर नमाज़ तो अदा करते हैं लेकिन मस्जिद के बाहर रंग और अदाए कुछ और है. मतलब यह कि मुसलमानो ने मस्जिद तो कबूल की लेकिन अपने पीछे के मजहब से मिली वर्ण व्यवस्था को नहीं छोड़ सकें जिस भेदभाव और सामाजिक-असमानता के खिलाफ ही इस्लाम खड़ा हुआ था।

हाँ मुझे याद है जब जौनपुर के गाँव मे धोबी या अंसारी समाज उच्च वर्ग मुसलमानो की चारपाई के पैताने बैठा करते थे और उच्च वर्ग की गाली मे जुलहा-जुलहटी जैसे जुमले का दंश झेला करते थें. बहुसंख्यक वर्ग मे पिछड़ा और दलित का जो हाल है वही हालात यहा अशराफ़ और अजलाफ़ के बीच है.

हालांकि तमाम उलेमा जातिवाद को तोड़ने की कोशिश लगातार करते दिखते रहते हैं बावजूद इसके यह सिर्फ अभी मस्जिदों तक ही संभव हो सका है. यहा तक की मसलक की मस्जिदे और उनके इमाम भी अलग-अलग हैं जहाँ  मुसलमान को एक काग़ज़ पर बेदखल करने की ताकत है.

हकीक़त यह है कि उलेमाओ से लेकर प्रगतिशील समाज का प्रभाव कभी भी पूरे समाज पर नहीं पड़ पाया है जिससे  मसलक या जातियो के बीच आपस मे शादी ब्याह रचाए जाए वहीँ सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक रूप से पिछड़े समाज को मौका देने के लिए कोई पहल होना तो दूर की कौड़ी है!

मुसलमानो के जो भी कल-कारखाने थे उनमे यही पिछड़ा और दबा-कुचला समाज मजदूरी करता था, बर्तन बनाना, कपड़े सिलना, कपड़े धुलना, रूई धुनना, बाल बनाना, खेतो को जोतना यानि यह कहा जाए कि वो मुस्लिम उच्च वर्ग के अधीन रहते हुए तालीम, समाज व राजनीति मे पिछड़ता रहा और रजवाड़े, जमींदारी, निज़ाम सब के सब अपनी जगह टिका रहे.

जब मण्डल कमीशन जैसे समाजिक इंसाफ की लड़ाई लड़ी गई तो बहुसंख्यक उच्च वर्ग की चोटियाँ यानि एंटीना खड़ा हो गया वैसे ही मुस्लिम समाज के उच्च वर्ग भी कहने लगे कि यह मुसलमानो को जाति में बांटने की साजिश है और रिज़र्वेशन आर्थिक आधार पर होने चाहिए. हालाँकि यह बात अब छुपी नहीं है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण देना दरअसल ब्राह्मणवादी व संघी एजेंडा है जिसे मुसलमानो ने भी अपनाया है.

मण्डल के तहत ही 27% मे पिछड़े-शोषित मुसलमान बिरादरियों को भी हिस्सा मिल रहा है, देश की 80% आवाम को पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह का आभारी होना चाहिए साथ ही इस साजिश को भी समझना चाहिए कि सामाजिक न्याय के ही चलते उनकी सरकार के परखच्चे उड़ा दिये गए लेकिन जो मिलना था पिछड़ो को वो मिला, इसी मिले अधिकार पर संघ नज़र गड़ाए बैठा है जबकि आज भी 50% अऩारक्षित नौकरियों में ऊँची जातियों का कब्ज़ा है.

मुसलमानो को धर्म या आर्थिक आधार पर आरक्षण देने या इसके वादे करने का खेल पुराना है और यही काम अब भारतीय जनता पार्टी कर रही. इस कवायद में जुटी भाजपा को हाल ही में हरियाणा हाईकोर्ट ने जाट आरक्षण के सन्दर्भ में खूब फटकार लगाई है.

अगर हम याद करे तो 2011 के आस-पास उत्तर-प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले तत्कालीन केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्री सलमान खुर्शीद के हाथो 3.5% आरक्षण मुसलमानो को देने का ऐलान किया गया था लेकिन वो कोर्ट मे टिक नहीं पाया, बसपा सहित समाजवादी पार्टी ने अपने घोषणा-पत्र मे 18% आरक्षण देने का वादा किया था जो 2016 तक पूरा नहीं हो पाया.

असल में इसका कारण यह है कि संविधान मे आरक्षण देने की सीमा 50% है जिसमे अगर संविधान संशोधन के लिए केंद्र सरकार राज़ी हो यानी संसद, प्रधानमंत्री तैयार हो तो ही संशोधन हो सकता है और ऐसा करवाने के लिए चार साल माथा पच्ची करने के बाद समाजवादी पार्टी अब जाकर केंद्र के समक्ष प्रस्ताव रखने को तैयार हुई है ताकि संसद में इस पर मुहर लग सके और संविधान में आरक्षण की सीमा बढ़ सके.

आरक्षण और संविधान के जानकार समाजवादी पार्टी की इस समझ को बचकाना मानते हैं. अगर ऐसा हो भी जाए तो हर धर्म के उच्च वर्ग के लिए एक नई जंग शुरू हो जाएगी, अब यह मानना होगा की आरक्षण कोई केक नहीं है जो उच्च वर्ग द्वारा दलित, आदिवासी, पिछड़े पर शोषण के पश्चात संविधान का दिया हुआ एक पश्चाताप है!

उच्च वर्ग मे जन्म लेने वाले प्रगतिशील कमज़ोरों तबके की तकलीफ समझ सकते है, आरक्षण पर बात करते हुए एक आलिम ने लेखक को एक दिलचस्प वाकया समझाया कि इस्लाम मे बादशाहियत नहीं है कोई ‘हिज़ हायनेस’ नहीं है, किसी मजलिस मे मेहमान के आने पर खड़ा हो जाना यह अदब मे नहीं है.

उन्होंने बताया कि इस्लाम के पैग़ंबर (Prophet) जनाब ए रसूलल्लाह सअव एक मजलिस थे जहा हज़रत उमर और हज़रत अली भी थे. मीटिंग शुरू हो गई. थोड़ी देर बाद इसी बीच हज़रत बिलाल तशरीफ लाए जो ग़ुलाम समाज से  थे, वो उस जमाने मे अछूत की हैसियत रखते थे, जब वो अंदर आए तो जगह न होने की वजह से अपनी जगह पेश करते हुए हज़रत अली खड़े हो गए और फरमाया कि बिलाल मेरी जगह बैठ जाए, हज़रत अली की तरफ जनाब ए रसूलल्लाह सअव ने देखकर मुस्कराते हुए कहा कि अली, “हीरे की क़दर जौहरी ही जानता है”!

उस आलिम ने समझाया कि हज़रत बिलाल ग़ुलाम दबे कुचले समाज से आए थे, उन्हे समाज मे जगह दी गई यही सामाजिक इंसाफ और आरक्षण है. आपको महकूम और मख़लूक़ को साइड देना होगा, मेरे खयाल से मुसलमानो को जिसमे 80% पिछड़े पसमांदा लोग की आबादी है अगर उन्हे संविधान के जरिये कुछ मिलता है तो उसके लिए हमे अड़चन न बनकर, मुसलमानो मे ज़ात है इस सच्चाई को मानकर हमे उनके अधिकारो के लिए लड़ना चाहिए लेकिन अफसोस की सत्ताधारी पार्टी के नजदीक मुसलमानो का सामंत वर्ग और अशराफ़ असर रखता है जो मुसलमान कोटे से लोग विधानसभा या संसद मे जाते है, वो या तो अपनी पार्टियो से डरते हैं या उन्हे आरक्षण की समझ नहीं, आज भी राजनैतिक दलो के निर्णयों मे मुसलमान पिछड़ो की हैसियत सियासी कंडक्टर की तरह ही है इसलिए उन्हे इस बीच अपने सियासी मुहसिनों की तलाश करनी होगी!

देश मे चार मुख्य राज्यो केरल, तमिलनाडू, आंध्रा प्रदेश और पश्चिम बंगाल मे मुसलमानो के लिए आरक्षण मिला है. इसका आधार सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन था. केरल मे सीपीआई के मुख्यमंत्री सी अच्युतानंदन ने 12%आरक्षण पिछड़े मुसलमान को दिलाया, इसी को आधार बनाकर तमिलनाडु मे 3.5%, आंध्रा प्रदेश मे वाईएसआर कांग्रेस ने 4% और पश्चिम बंगाल की बुद्धदेब सरकार ने 10% आरक्षण सब कोटा के ज़रिये लागू किया जो अदालतों मे टिक पाया और आज तक लागू है जिसका असर केरल मे मुसलमानो की साक्षरता दर और तरक़्क़ी मे मुसलमानो के हिस्से को देखा जा सकता है, और अगर इसी तरह बिहार व उत्तर प्रदेश मे मुसलमान आरक्षण चाहता है उसे पहले ईमानदारी से जातिवाद के खात्मे पर सोचना होगा इसके साथ उपरोक्त राज्यो का अध्यन कर किसी एक राज्य को मॉडल बनाना होगा. अफसोस की बात यह है कि पिछड़ो की राजनीति के नाम पर उन्हीं के बीच एक क्रीमीलेयर तैयार हो गया है जो खुद उनके लिए नुकसानदेह साबित हुआ है.

राजनैतिक दलो को चाहिए कि वो अवाम से साफ़ कह दे कि धर्म, जाति या आर्थिक आधार पर संविधान मे कोई आरक्षण नहीं हो सकता. चाहे भाजपा का पाटीदार समाज हो या फिर हरियाणा मे जाट समाज जिसने हिंसा के बलपर आरक्षण की बात मनवाई. सपा, कांग्रेस या बसपा के मुस्लिम आरक्षण कार्यक्रम संविधान के खिलाफ हैं जो अगर दे भी दिए जाए तो अदालत इसपर रोक लगा देगी.

उत्तर प्रदेश मे सत्तासीन समाजवादी पार्टी अगर मुसलमानो को आरक्षण देना चाहती है तो पिछड़े मुसलमानो के लिए केरल मॉडल पर सब कोटा के तहत रोजगार और शिक्षा मे हिस्सा दे सकती है. इसके लिए उसके मुस्लिम उच्च वर्ग को सामाजिक न्याय के मामले मे, कमज़ोरों पर हुई नाइंसाफी का एतराफ़ करते हुए पार्टी में शामिल नेताओं को हज़रत अली के पैरो की खाक न सही लेकिन कम से कम उच्च वर्ग मे जन्मे प्रगतिशील नेता पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह तो बनना ही होगा !

लेखक-अमीक जामेई

यह लेख उत्तर प्रदेश में 18 प्रतिशत मुस्लिम समाज को आरक्षण देने के समाजवादी पार्टी के वायदे को पूरा न करने के बाद लिखा गया है. इस लेख में संविधान के दायरे का ख्याल रखते हुए मुस्लिम आरक्षण पर तमाम कानूनी बारीकियाँ लिखी गई हैं.

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