Thursday, 23 June 2016

अखिलेश यादव मनुवादियों से इतना डरते क्यों हैं ? – मोहम्मद अनस


साध्वी प्राची ने कहा,’यह सही वक्त है भारत को मुसलमानों से मुक्त करने का।’

तमाम बड़े सोशल एक्टिविस्ट, मानवाधिकार कार्यकर्ता, राजनीतिक टिप्पणीकार एवं फेसबुक के महान सेक्यूलर उबल पड़े।

हिंदू धर्म के वरिष्ठ संत शंकराचार्य स्वरुपानंद सरस्वती ने मथुरा हिंसा के बाद बयान दिया,’चूंकि मथुरा हिंसा के पीछे रामवृक्ष यादव है इसलिए यूपी की यादव सरकार उसे कुछ नहीं बोली और यह सब हुआ।’ शंकराचार्य ने कुछ नया नहीं कहा, यह तो धर्म का आधार स्तंभ है। लेकिन स्वतंत्र टिप्पणीकारों, सेक्यूलरों और दीगर कार्यकर्ताओं में कोई आपत्ति नहीं दर्ज की गई? आखिर क्यों भाई? यादव पहचान पर हमला हो रहा है और चुप बैठे हैं। क्या यादव इस देश का नागरिक नहीं ? क्या उसे सत्ता और व्यवस्था चलाने के मौके नहीं मिलने चाहिए, यदि मिल गए तो उसकी जाति को गाली देंगे? ये नहीं चलेगा।

समाजवादी पार्टी और खुद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मनुवादियों से बेइंतहा डरते हैं। जितना सम्मान इस पार्टी में मनुवादियों को दिया जाता है उतना कहीं और नहीं मिलता। अपमान के बदले सम्मान देते हुए किसी को देखा है? मैंने अपनी आंख से देखा है। इस डर का बड़ा कारण है यादवों में आत्मसम्मान की कमी, जाति को लेकर मुखर न होना और मनुवादियों के फेर में फंस कर धर्म की रक्षा हेतु लठैत बन जाना। लठैती खुद की हो तो सही है लेकिन किसी के लिए लठैत बन करके उसकी चाकरी करना मतलब रहम ओ करम पर जीना। आखिर किस बात की कमी है यादवों को? सेना से लेकर पुलिस तक में हैं। सरकारी और गैर सरकारी नौकरियों से लेकर बाहुबली तक यादव हैं। फिर भी ब्राह्मणवादियों के भय क्यों ?

जाति का मुद्दा कमज़ोर होगा तो ब्राह्मणवादी मजबूत होंगे, इसको ध्यान में रखते हुए आरएसएस ने शंकराचार्य के यादव- यादव वाले बयान को दबाने के लिए प्राची को मुसलमान-मुसलमान करने को कहा। यदि किसी यादव को उसकी जाति के सम्बंध में भला बुरा कहा जाए और ऐसा उसी धर्म को मानने वाले सबसे बड़े संत के मुंह से यह सब हो, तो समस्या कौन सी बड़ी है? प्राची वाली या शंकराचार्य वाली ?

यादवों की शादी, उनका मरना जीना, उनकी दिनचर्या उसी शंकराचार्य के बनाए विधि विधान से पूर्ण होती है जो उसकी जाति से नफरत करता है और आलोचना के सबसे निचले स्तर पर जा कर नफरती बोल बोलता है। मेरे लिए शंकराचार्य के बोल अधिक बुरे लगे बनिस्बत प्राची के। मैं जानता हूं कि इस देश से बीस-बाइस करोड़ मुसलमानों को निकालने या हटाने में साध्वी को सात जन्म लेना होगा, तब भी वह सफल हो, इसकी गारेंटी नहीं।

कल मैंने यादवों से अपील की थी कि वे शंकराचार्य का पुतला फूकें। कुछ दो तीन जगह से पुतला दहन के वादे की पुष्टि हुई है लेकिन अभी जलाया नहीं है। देखते हैं उनका जमीर कब जागता है। शंकराचार्य का पुतला दहन होगा तो सीधे ब्राह्मणवादियों को बुरा लगेगा, फिर वे और आक्रमकता से जवाब देंगे  और यहीं से खाई चौड़ी हो जाएगी। तमाम ओबीसी जातियों के खिलाफ वे खुले तौर पर सामने आ गए हैं। प्रोफेसरों की भर्तियों में आरक्षण खत्म किया गया, यही तो दुश्मनी का प्रमाण है। इलाहाबाद में आरक्षण विरोधी आंदोलन के समय भैंस को करेंट लगा कर मारने वाले कोई और नहीं शंकराचार्य के भक्त थे। लोकसेवा आयोग के बोर्ड को अहीर सेवा आयोग लिखने वाले कौन लोग थे? वही जिनका पैर छूते हैं यादव। फिर भी यादव जाति जाने किस चिंता में खुद को उन्हीं के शरण में ले जाती है जो उसको हर दिन अपमानित करते हैं।

धार्मिक विद्वेष की सबके बड़ी खिलाड़ी भाजपा है। उससे हिंदू मुसलमान करके कभी नहीं जीता जा सकता। जाति ही हराएगी भाजपा को। समझ रहे हैं न।

आजमगढ़ का यह हिन्दू परिवार रातों को जागकर मुस्लिम पड़ोसियों को रोज़े रखने में करता है मदद



बनारसी साड़ियों के लिए मशहूर उत्तर प्रदेश के मुबारकपुर गांव में रात के तीन बजे जब सभी सो रहे होते हैं, तब यह शख्स और उनके 12 वर्षीय बेटे की आंखों में नींद नहीं। इन दोनों का काम रात 1 बजे शुरू होता है और अगले दो घंटों तक ये गांव के मुस्लिम परिवारों को रमजान में सेहरी और फज्र (सुबह) की नमाज के लिए जगाते रहते हैं।

इन दो घंटों के दौरान 45 वर्षीय गुलाब यादव और उनका 12 वर्षीय बेटा अभिषेक गांव के सभी मुस्लिम घरों पर दस्तक देते हैं और उन लोगों के नींद से जग जाने तक वहां से हटते नहीं। यादव का कहना है कि वह 45 साल पुरानी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। साल 1975 में उनके पिता चिर्कित यादव ने इसकी शुरुआत की थी।

गुलाब यादव कहते हैं कि उस वक्त वह काफी छोटे थे और उन्हें इसकी वजह भी नहीं समझ आती थी। वह कहते हैं, 'मुझे लगता है कि इससे शांति मिलती है। मेरे पिता के बाद, मेरे बड़े भाई ने कुछ वर्षों तक यह काम किया, उनके बाद मैंने यह जिम्मा उठाया और अब मैं हर रमजान यहां लौट आता हूं।'

गुलाब यादव पेशे से दिहाड़ी मजदूर हैं, जो कि ज्यादातर समय दिल्ली में रहते हैं, लेकिन रमजान आने पर वह पूर्वी यूपी के आजमगढ़ स्थित अपने गांव लौट आते हैं।

वहीं गुलाब के पड़ोसी शफीक बताते हैं कि वह महज चार साल के थे, जब यह परंपरा शुरू हुई थी। शफीक कहते हैं, 'आप देखिये, यह बेहद प्रशंसनीय काम है। वह पूरे गांव का चक्कर लगाते हैं, इसमें डेढ़ घंटे का वक्त लगता है। इसके बाद वह एक बार फिर पूरे गांव में घूमते हैं। वह यह पक्का करते हैं कि कोई भी सेहरी करने से ना चूके। इससे ज्यादा पवित्र चीज़ और क्या हो सकती है।'

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं और बीते कुछ दिनों से पश्चिमी यूपी के कैराना से हिन्दुओं के कथित पलायन को लेकर सियासत गर्मायी हुई है। ऐसे में आजामगढ़ के गुलाब यादव इंसानियत और हिन्दू- मुस्लिम भाईचारे पर भरोसे को नई जान देते हैं।

Monday, 20 June 2016

वे कहते हैं ‘मेरा देश आगे बढ़ रहा है’ और मुझे ‘मेरा देश गड्ढे में गिर रहा है’ सुनाई देता है- कन्हैया कुमार


वे कहते हैं ‘मेरा देश आगे बढ़ रहा है’ और मुझे ‘मेरा देश गड्ढे में गिर रहा है’ सुनाई देता है। देश गड्ढे में इसलिए गिर रहा है कि यूजीसी के बजट में 55 प्रतिशत कटौती कर दी गई है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को तो पुरानी हवेली का ख़ज़ाना बना दिया गया जिसके बारे में या तो ज़मींदार को मालूम होता था या हवेली के दरबान को। एक सरकारी अधिकारी को इस नीति से जुड़े अपने ही सुझावों को जनता से साझा करने के लिए सरकार को धमकी देनी पड़ी।
पिछली बार राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में बनी थी, यानी आज से 30 साल पहले। जिस देश की आबादी में 65 प्रतिशत हिस्सा 35 साल तक की उम्र के युवाओं का हो, वहाँ गुपचुप ढंग से राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाने वाली सरकार की नीयत में ही खोट नज़र आता है। वे चुपचाप विदेशी विश्वविद्यालयों को बुला लेना चाहते हैं, भले ही इसके लिए अच्छे सरकारी संस्थानों को बर्बाद ही क्यों न करना पड़े।
वे शिक्षा को स्किल तक सिमटा देना चाहते हैं, जबकि शिक्षा का दायरा इससे बहुत ज़्यादा बड़ा है। वे विश्वविद्यालयों में राजनीति नहीं देखना चाहते क्योंकि उन्हें फ़ंड में कटौती के विरोध और लाइब्रेरी की माँग में भी ‘गंदी राजनीति’ और हिंसा नज़र आती है, जबकि सच तो यह है कि कॉलेज और विश्वविद्यालय में हिंसा अधिकतर मामलों में राजनीति से नहीं, जातिवादी मानसिकता से होती हैI
इसीलिए तो कहता हूँ:
हमें उनसे है शिक्षा नीति की उम्मीद
जो नहीं जानते शिक्षा क्या है !

उत्तर-प्रदेश में 3 करोड़ मुसलमानों की अहमियत तीन पैसे की नहीं ! जानिए क्यों

सामाजिक न्याय के पुरोधा पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह कहते थे कि,” मुसलमानो को वोट बैंक नहीं वोट मैनेजर बनना चाहिए. लेकिन हालात बताते हैं यह वोट बैंक मैनेजर तो नहीं बना लेकिन कंडक्टर या कह लीजिए पियून ज़रूर बन चुका है जिसके नेताओं के हाथ मे 3 करोड़ की कीमत वाला उत्तर प्रदेश विधान सभा का टिकट का अवसर भी है, ज़ुबान पर ताले और अपमान फ्री मे है साथ ही उसके उद्योग धंधे पर ताले पड़ चुके है!

उत्तर प्रदेश मे समाजवादी पार्टी में बड़ा कद रखने वाले शिवपाल यादव ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे सच्चर कमेटी का हवाला देते हुए कहा है कि 18% मुसलमानो को आरक्षण देने मे कई तकनीकी खामिया है. अगर देखा जाए तो ऐसे बयान बड़े हिम्मत वाले है, शिवपाल यादव जैसे नेता कम है जो संविधान के दायरे मे साफ बात आवाम को बताए लेकिन सवाल यह उठता है कि ऐसे वादे राजनैतिक दलों द्वारा क्यों किये जाते हैं और लोग उनके धोखे मे फसते ही क्यों है या शिवपाल यादव ने यह बात वादे करते वक़्त अपनी समाजवादी पार्टी को क्यो नहीं बतायी थी?

मुसलमानो मे ज़ात और उनके पिछड़ेपन को समझने के लिए थोड़ा पीछे जाने की ज़रूरत है, भारत में वर्ण व्यवस्था समाज के हर तबके में मौजूद है, यहां पंडित है, जुलाहे हैं, भंगी कहे जाने वाले दलित भी हैं ! जिससे मुसलमान भी नहीं बचा सका।

हाँ सिर्फ, इस्लाम के आगमन पर उलेमाओ और सूफियो की तहरीक से इतना ज़रूर हुआ कि यह मस्जिदों मे तो एक शफ मे खड़े होकर नमाज़ तो अदा करते हैं लेकिन मस्जिद के बाहर रंग और अदाए कुछ और है. मतलब यह कि मुसलमानो ने मस्जिद तो कबूल की लेकिन अपने पीछे के मजहब से मिली वर्ण व्यवस्था को नहीं छोड़ सकें जिस भेदभाव और सामाजिक-असमानता के खिलाफ ही इस्लाम खड़ा हुआ था।

हाँ मुझे याद है जब जौनपुर के गाँव मे धोबी या अंसारी समाज उच्च वर्ग मुसलमानो की चारपाई के पैताने बैठा करते थे और उच्च वर्ग की गाली मे जुलहा-जुलहटी जैसे जुमले का दंश झेला करते थें. बहुसंख्यक वर्ग मे पिछड़ा और दलित का जो हाल है वही हालात यहा अशराफ़ और अजलाफ़ के बीच है.

हालांकि तमाम उलेमा जातिवाद को तोड़ने की कोशिश लगातार करते दिखते रहते हैं बावजूद इसके यह सिर्फ अभी मस्जिदों तक ही संभव हो सका है. यहा तक की मसलक की मस्जिदे और उनके इमाम भी अलग-अलग हैं जहाँ  मुसलमान को एक काग़ज़ पर बेदखल करने की ताकत है.

हकीक़त यह है कि उलेमाओ से लेकर प्रगतिशील समाज का प्रभाव कभी भी पूरे समाज पर नहीं पड़ पाया है जिससे  मसलक या जातियो के बीच आपस मे शादी ब्याह रचाए जाए वहीँ सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक रूप से पिछड़े समाज को मौका देने के लिए कोई पहल होना तो दूर की कौड़ी है!

मुसलमानो के जो भी कल-कारखाने थे उनमे यही पिछड़ा और दबा-कुचला समाज मजदूरी करता था, बर्तन बनाना, कपड़े सिलना, कपड़े धुलना, रूई धुनना, बाल बनाना, खेतो को जोतना यानि यह कहा जाए कि वो मुस्लिम उच्च वर्ग के अधीन रहते हुए तालीम, समाज व राजनीति मे पिछड़ता रहा और रजवाड़े, जमींदारी, निज़ाम सब के सब अपनी जगह टिका रहे.

जब मण्डल कमीशन जैसे समाजिक इंसाफ की लड़ाई लड़ी गई तो बहुसंख्यक उच्च वर्ग की चोटियाँ यानि एंटीना खड़ा हो गया वैसे ही मुस्लिम समाज के उच्च वर्ग भी कहने लगे कि यह मुसलमानो को जाति में बांटने की साजिश है और रिज़र्वेशन आर्थिक आधार पर होने चाहिए. हालाँकि यह बात अब छुपी नहीं है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण देना दरअसल ब्राह्मणवादी व संघी एजेंडा है जिसे मुसलमानो ने भी अपनाया है.

मण्डल के तहत ही 27% मे पिछड़े-शोषित मुसलमान बिरादरियों को भी हिस्सा मिल रहा है, देश की 80% आवाम को पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह का आभारी होना चाहिए साथ ही इस साजिश को भी समझना चाहिए कि सामाजिक न्याय के ही चलते उनकी सरकार के परखच्चे उड़ा दिये गए लेकिन जो मिलना था पिछड़ो को वो मिला, इसी मिले अधिकार पर संघ नज़र गड़ाए बैठा है जबकि आज भी 50% अऩारक्षित नौकरियों में ऊँची जातियों का कब्ज़ा है.

मुसलमानो को धर्म या आर्थिक आधार पर आरक्षण देने या इसके वादे करने का खेल पुराना है और यही काम अब भारतीय जनता पार्टी कर रही. इस कवायद में जुटी भाजपा को हाल ही में हरियाणा हाईकोर्ट ने जाट आरक्षण के सन्दर्भ में खूब फटकार लगाई है.

अगर हम याद करे तो 2011 के आस-पास उत्तर-प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले तत्कालीन केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्री सलमान खुर्शीद के हाथो 3.5% आरक्षण मुसलमानो को देने का ऐलान किया गया था लेकिन वो कोर्ट मे टिक नहीं पाया, बसपा सहित समाजवादी पार्टी ने अपने घोषणा-पत्र मे 18% आरक्षण देने का वादा किया था जो 2016 तक पूरा नहीं हो पाया.

असल में इसका कारण यह है कि संविधान मे आरक्षण देने की सीमा 50% है जिसमे अगर संविधान संशोधन के लिए केंद्र सरकार राज़ी हो यानी संसद, प्रधानमंत्री तैयार हो तो ही संशोधन हो सकता है और ऐसा करवाने के लिए चार साल माथा पच्ची करने के बाद समाजवादी पार्टी अब जाकर केंद्र के समक्ष प्रस्ताव रखने को तैयार हुई है ताकि संसद में इस पर मुहर लग सके और संविधान में आरक्षण की सीमा बढ़ सके.

आरक्षण और संविधान के जानकार समाजवादी पार्टी की इस समझ को बचकाना मानते हैं. अगर ऐसा हो भी जाए तो हर धर्म के उच्च वर्ग के लिए एक नई जंग शुरू हो जाएगी, अब यह मानना होगा की आरक्षण कोई केक नहीं है जो उच्च वर्ग द्वारा दलित, आदिवासी, पिछड़े पर शोषण के पश्चात संविधान का दिया हुआ एक पश्चाताप है!

उच्च वर्ग मे जन्म लेने वाले प्रगतिशील कमज़ोरों तबके की तकलीफ समझ सकते है, आरक्षण पर बात करते हुए एक आलिम ने लेखक को एक दिलचस्प वाकया समझाया कि इस्लाम मे बादशाहियत नहीं है कोई ‘हिज़ हायनेस’ नहीं है, किसी मजलिस मे मेहमान के आने पर खड़ा हो जाना यह अदब मे नहीं है.

उन्होंने बताया कि इस्लाम के पैग़ंबर (Prophet) जनाब ए रसूलल्लाह सअव एक मजलिस थे जहा हज़रत उमर और हज़रत अली भी थे. मीटिंग शुरू हो गई. थोड़ी देर बाद इसी बीच हज़रत बिलाल तशरीफ लाए जो ग़ुलाम समाज से  थे, वो उस जमाने मे अछूत की हैसियत रखते थे, जब वो अंदर आए तो जगह न होने की वजह से अपनी जगह पेश करते हुए हज़रत अली खड़े हो गए और फरमाया कि बिलाल मेरी जगह बैठ जाए, हज़रत अली की तरफ जनाब ए रसूलल्लाह सअव ने देखकर मुस्कराते हुए कहा कि अली, “हीरे की क़दर जौहरी ही जानता है”!

उस आलिम ने समझाया कि हज़रत बिलाल ग़ुलाम दबे कुचले समाज से आए थे, उन्हे समाज मे जगह दी गई यही सामाजिक इंसाफ और आरक्षण है. आपको महकूम और मख़लूक़ को साइड देना होगा, मेरे खयाल से मुसलमानो को जिसमे 80% पिछड़े पसमांदा लोग की आबादी है अगर उन्हे संविधान के जरिये कुछ मिलता है तो उसके लिए हमे अड़चन न बनकर, मुसलमानो मे ज़ात है इस सच्चाई को मानकर हमे उनके अधिकारो के लिए लड़ना चाहिए लेकिन अफसोस की सत्ताधारी पार्टी के नजदीक मुसलमानो का सामंत वर्ग और अशराफ़ असर रखता है जो मुसलमान कोटे से लोग विधानसभा या संसद मे जाते है, वो या तो अपनी पार्टियो से डरते हैं या उन्हे आरक्षण की समझ नहीं, आज भी राजनैतिक दलो के निर्णयों मे मुसलमान पिछड़ो की हैसियत सियासी कंडक्टर की तरह ही है इसलिए उन्हे इस बीच अपने सियासी मुहसिनों की तलाश करनी होगी!

देश मे चार मुख्य राज्यो केरल, तमिलनाडू, आंध्रा प्रदेश और पश्चिम बंगाल मे मुसलमानो के लिए आरक्षण मिला है. इसका आधार सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन था. केरल मे सीपीआई के मुख्यमंत्री सी अच्युतानंदन ने 12%आरक्षण पिछड़े मुसलमान को दिलाया, इसी को आधार बनाकर तमिलनाडु मे 3.5%, आंध्रा प्रदेश मे वाईएसआर कांग्रेस ने 4% और पश्चिम बंगाल की बुद्धदेब सरकार ने 10% आरक्षण सब कोटा के ज़रिये लागू किया जो अदालतों मे टिक पाया और आज तक लागू है जिसका असर केरल मे मुसलमानो की साक्षरता दर और तरक़्क़ी मे मुसलमानो के हिस्से को देखा जा सकता है, और अगर इसी तरह बिहार व उत्तर प्रदेश मे मुसलमान आरक्षण चाहता है उसे पहले ईमानदारी से जातिवाद के खात्मे पर सोचना होगा इसके साथ उपरोक्त राज्यो का अध्यन कर किसी एक राज्य को मॉडल बनाना होगा. अफसोस की बात यह है कि पिछड़ो की राजनीति के नाम पर उन्हीं के बीच एक क्रीमीलेयर तैयार हो गया है जो खुद उनके लिए नुकसानदेह साबित हुआ है.

राजनैतिक दलो को चाहिए कि वो अवाम से साफ़ कह दे कि धर्म, जाति या आर्थिक आधार पर संविधान मे कोई आरक्षण नहीं हो सकता. चाहे भाजपा का पाटीदार समाज हो या फिर हरियाणा मे जाट समाज जिसने हिंसा के बलपर आरक्षण की बात मनवाई. सपा, कांग्रेस या बसपा के मुस्लिम आरक्षण कार्यक्रम संविधान के खिलाफ हैं जो अगर दे भी दिए जाए तो अदालत इसपर रोक लगा देगी.

उत्तर प्रदेश मे सत्तासीन समाजवादी पार्टी अगर मुसलमानो को आरक्षण देना चाहती है तो पिछड़े मुसलमानो के लिए केरल मॉडल पर सब कोटा के तहत रोजगार और शिक्षा मे हिस्सा दे सकती है. इसके लिए उसके मुस्लिम उच्च वर्ग को सामाजिक न्याय के मामले मे, कमज़ोरों पर हुई नाइंसाफी का एतराफ़ करते हुए पार्टी में शामिल नेताओं को हज़रत अली के पैरो की खाक न सही लेकिन कम से कम उच्च वर्ग मे जन्मे प्रगतिशील नेता पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह तो बनना ही होगा !

लेखक-अमीक जामेई

यह लेख उत्तर प्रदेश में 18 प्रतिशत मुस्लिम समाज को आरक्षण देने के समाजवादी पार्टी के वायदे को पूरा न करने के बाद लिखा गया है. इस लेख में संविधान के दायरे का ख्याल रखते हुए मुस्लिम आरक्षण पर तमाम कानूनी बारीकियाँ लिखी गई हैं.

Saturday, 21 May 2016

राजस्थान में प्यास से तड़पकर मर गई सैकड़ो गायें,”गाय माता” चिल्लाने वाली बीजेपी को होश नहीं


केद्र में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के मुख्य एंजेंडे में शायद गौरक्षा शामिल न हो लेकिन उससे जुड़े तमाम संगठन हमेशा गौरक्षा का राग अलापते रहते है। गाय को राष्ट्रमाता घोषित कराने की मुहिम हमेशा चलती रहती है। यह मुहिम जन्तर-मन्तर से लेकर रामलीला और शहरों की दिवारों पर संदेशनुमा चस्पे दिख ही जाते है। क्योंकि हिंदू धर्म में गाय को आस्था से जोड़कर देखा गया है। मान्यताएं है कि गाय के पूरे शरीर मेंं देवताओं का वास होता है इसलिए भगवान कृष्ण को गोपाल कृष्ण गोविंद यानि की गाय के पालनहार कहते है !


इसलिए शायद वोटबैंक की राजनीति चमकाने के लिए भारतीय जनता पार्टी गाहे-बगाहे गाय के मुद्धे को राजनीति में इस्तेमाल करती है। पर कुछ दिनों से राजस्थान के सवाई माधौपुर जिलें में पानी की कमी के चलते बेजुबान पशु प्यासें दम तोड़ रहें हैं। यहाँ गायों के मरने की संख्या सैकड़ो के पार पहुंच चुकी है। पर फिर भी केंद्र में सत्तासीन नरेंद्र मोदी की सरकार जिनकी सरकार में शामिल एकतरफा पूरा प्रदेश जीत कर आए 25 माननीय सांसद को होश नहीं है। इतना ही नहीं प्रदेश में भी बीजेपी की वसुंधरा राजे पूर्ण बहुमत से सरकार में बैठी है। पर प्यासे बेजुबान दम तोड़ते पशुओं की सुध किसी को नहीं है। कल कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट ने इस भयावह और दिल दहला देने वाले मंजर पर सुध ली औऱ जाकर आफन-फानन में गायों के लिए पानी का इंतजाम किया।

गायों पर राजनीति करने वाले संगठन इस दर्दनीय घटना से बेखबर है। क्योंकि शायद उन्हें सिर्फ गाय औऱ आस्था दोनों पर राजनीति करना बखूबी आता है। पर इन बेजुबान पशुओं को तड़पते देख इऩकी न आँखे पसीजती है और न ही दिल।


साभार- boltahindustan.com

राजस्थान में प्यास से तड़पकर मर गई सैकड़ो गायें,”गाय माता” चिल्लाने वाली बीजेपी को होश नहीं


केद्र में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के मुख्य एंजेंडे में शायद गौरक्षा शामिल न हो लेकिन उससे जुड़े तमाम संगठन हमेशा गौरक्षा का राग अलापते रहते है। गाय को राष्ट्रमाता घोषित कराने की मुहिम हमेशा चलती रहती है। यह मुहिम जन्तर-मन्तर से लेकर रामलीला और शहरों की दिवारों पर संदेशनुमा चस्पे दिख ही जाते है। क्योंकि हिंदू धर्म में गाय को आस्था से जोड़कर देखा गया है। मान्यताएं है कि गाय के पूरे शरीर मेंं देवताओं का वास होता है इसलिए भगवान कृष्ण को गोपाल कृष्ण गोविंद यानि की गाय के पालनहार कहते है !




इसलिए शायद वोटबैंक की राजनीति चमकाने के लिए भारतीय जनता पार्टी गाहे-बगाहे गाय के मुद्धे को राजनीति में इस्तेमाल करती है। पर कुछ दिनों से राजस्थान के सवाई माधौपुर जिलें में पानी की कमी के चलते बेजुबान पशु प्यासें दम तोड़ रहें हैं। यहाँ गायों के मरने की संख्या सैकड़ो के पार पहुंच चुकी है। पर फिर भी केंद्र में सत्तासीन नरेंद्र मोदी की सरकार जिनकी सरकार में शामिल एकतरफा पूरा प्रदेश जीत कर आए 25 माननीय सांसद को होश नहीं है। इतना ही नहीं प्रदेश में भी बीजेपी की वसुंधरा राजे पूर्ण बहुमत से सरकार में बैठी है। पर प्यासे बेजुबान दम तोड़ते पशुओं की सुध किसी को नहीं है। कल कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट ने इस भयावह और दिल दहला देने वाले मंजर पर सुध ली औऱ जाकर आफन-फानन में गायों के लिए पानी का इंतजाम किया ।



गायों पर राजनीति करने वाले संगठन इस दर्दनीय घटना से बेखबर है। क्योंकि शायद उन्हें सिर्फ गाय औऱ आस्था दोनों पर राजनीति करना बखूबी आता है। पर इन बेजुबान पशुओं को तड़पते देख इऩकी न आँखे पसीजती है और न ही दिल।


साभार- boltahindustan.com

Tuesday, 10 May 2016

ये कैसे 'आतंकवादी' थे जो चार दिनों में छूट गए?

कुछ दिनों पहले दिल्ली में जैश-ए-मोहम्मद से संबंध रखने के आरोप में 13 लोगों को हिरासत में लिया गया था। बताया गया था कि ये लोग दिल्ली में भी पठानकोट जैसा हमला करना चाहते थे। उनके पास से विस्फोटक और टाइमर आदि भी पाए गए थे। सारे टीवी चैनलों ने इसे चलाया, अखबारों ने हेडिंग बनाई। वेबसाइटों पर यह खबर चली। पाठकों ने कॉमेंट लिखे। नीचे देखें नेट पर चली कुछ हेडलाइन्स।





आप देखेंगेइंडिया टुडे और पत्रिका ने तो साफ कह दिया कि ये सभी आतंकवादी हैं जबकि नवभारत टाइम्स और NDTV इंडिया ने पत्रकारिक ज़िम्मेदारी का ख़्याल रखते हुए उनको केवल संदिग्ध आतंकवादी बताया है। वैसे NDTV इंडिया और नवभारत टाइम्स की ख़बरों में भी फ़र्क़ है। NDTV इंडिया ने जहां केवल 3 को संदिग्ध आतंकी लिखा है, वहीं नवभारत टाइम्स ने सभी 13 को संदिग्ध आतंकी बताया है।
हिरासत में लिए गए लड़कों के परिवारवाले कहते रहे कि ये बच्चे आतंकवादी नहीं हैं। लेकिन ऐसा तो सभी कहते हैं। कौन इन पर यक़ीन करता है? मीडिया भी क्यों करे?
आरोपियों से पूछताछ हुई। तीन दिन बाद 4 लोगों को छोड़ दिया गया और कल-परसों बाक़ी 6 को भी छोड़ दिया गया। देखें नीचे इन ख़बरों के स्क्रीनशॉट।


अब आप सोच रहे होंगे, ‘जैश के इन आतंकवादियोंको जैसा कि इंडिया टुडे और पत्रिका ने पहले ही दिन बताया था, चार-पांच दिनों बाद क्यों छोड़ दिया गया। क्योंकि उनके खिलाफ़ जैश से जुड़े होने या किसी साज़िश में शामिल होने सबूत नहीं मिले। नहीं मिले तो पहले उनको आतंकवादी क्यों बताया थाहै कोई जवाब?

नहीं है। तो अब क्या करें? करना क्या, जाओ घर, अब हो गया मामला ख़त्म।

घर जाओ! क्यों घर जाओ? क्यों कोई उस पुलिस और उस मीडिया से सवाल नहीं करे जिसने पहले दिन इन सबको आतंकवादी ठहरा दिया था? मैं यहां स्पष्ट कर दूं कि जब मैं मीडिया की बात करता हूं तो नवभारत टाइम्स को भी कठघरे में खड़ा करता हूं ख़ासकर वेबसाइट को। देखें, हमारी साइट पर  छपी यह ख़बर जो हमने हमारे सहयोगी समाचार पत्र सांध्य टाइम्स से ली थी। हेडिंग में भले ही संदिग्ध शब्द का इस्तेमाल किया गया हो मगर देखिए, इसकी पहली लाइन क्या कहती है!
पहली लाइन है –  राजधानी को दहलाने की साज़िश रच रहे 13 लोग पुलिस के हत्थे चढ़े हैं। यानी न कोर्ट, न कचहरी, न वक़ील, न दलील, रिपोर्टर साहब ने कर दिया फ़ैसला –  वे 13 लोग दिल्ली को दहलाने की साज़िश रच रहे थे। आगे लिखा है – ये लोग विस्फोटक जमा करके बम बना रहे थेइनके पास से बम बनाने में इस्तेमाल होनेवाली बैटरी, टाइमर आदि मिले हैं।
अब जब 13 लोगों के पास बम बनाने का सामान, टाइमर, बैटरी आदि मिले तो साफ़ है कि वे सारे के सारे आतंकवादी हैं। ठीक?

तो फिर 13 में से 10 आख़िर रिहा कैसे हो गए? जब इतना सारा सबूत था तो अब पुलिस क्यों कह रही है कि एक भी सबूत नहीं मिला इनके ख़िलाफ़? क्या वे सारे सबूत फ़र्ज़ी थे? क्या वह झूठ था जो पुलिस ने बताया था? क्या वह झूठ था जो रिपोर्टर साहब ने लिखा था?
सच्चाई यह है कि विस्फोटक रखने के आरोप में केवल तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया है और बाक़ी का इससे कोई संबंध नहीं था। लेकिन  मीडिया के बड़े हिस्से ने ऐलान कर दिया जैश से संबंध रखनेवाले 13 आतंकी ग़िरफ़्तार। कुछ ने संदिग्ध लगाया, कुछ ने नहीं। संदिग्ध लगाया तो वह भी ऐसे मानो एक रस्म निभा रहे हों। संदेश यही है कि ग़िरफ़्तार होनेवाला हर मुसलमान आतंकवादी हैं जब तक कि वह निर्दोष न साबित हो जाएं। Guilty unless proved innocent!

अभी कुछ ही दिनों पहले मालेगांव बम धमाके में गिरफ़्तार 9 लोगों को कोर्ट ने रिहा कर दिया। ये सभी मुस्लिम थे और उनको 2006 में ATS ने ग़िरफ्‍तार किया था। मामला लंबा चला। वे जेल में सड़ते रहे। कोई सबूत नहीं मिला तो NIA ने दो साल पहले  कह दिया कि उनके ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं है। और अब उनको बरी और रिहा कर दिया गया है। उन लोगों का दोष इतना था कि वे मुसलमान थे और शायद प्रतिबंधित संगठन सिमी से जुड़े हुए थे। यही काफ़ी था उनको मालेगांव धमाके से जोड़ने के लिए जिसके बारे में बाद में पता चला कि इस धमाके के पीछे भगवा संगठनों का हाथ है। स्वामी असीमानंद का क़बूलनामा NIA के पास है हालांकि असीमानंद अब उस क़बूलनामे को वापस ले चुके हैं।

अब हाल यह हो गया है कि जब पुलिस किसी को ग़िरफ़्तार करके उसे आतंकवादी बताती है और मीडिया आतंकवादी-आतंकवादीचिल्लाता है तो विश्वास कम और शक ज़्यादा होता है। इसके लिए दोषी जितनी पुलिस है, उससे ज़्यादा दोषी मीडिया है जिसने मान लिया है कि पुलिस जो कहेगी, उसको दस गुना बढ़ाकर लोगों को बताना है क्योंकि ये ख़बरें अच्छी चलती हैं। फिर जब चार दिन बाद पुलिस या कई साल बाद अदालत इन मीडिया-घोषित आतंकवादियों को रिहा करती है तो वह उस ख़बर को कोने में डाल देता है या गोल ही कर देता है।  कोई माई का लाल पत्रकार नहीं है जो  पलटकर पुलिस और मीडिया से पूछे कि भैये, पहले कैसे कह रहे थे कि यह आतंकवादी हैजो पूछता है वह  देशद्रोही और पाकिस्तानी एजंट ठहरा दिया जाता है जैसे कि मुझे ठहराया जाएगा यह पोस्ट लिखने के लिए।

आपमें से कई को मेरी यह पोस्ट हज़म नहीं हो रही होगी। ऐसे पाठकों से केवल एक सवाल पूछता हूं- कल यदि पुलिस आपको किसी महिला से रेप करने या आपके घर की किसी महिला को धंधा करने के आरोप में हिरासत में ले ले, और यही मीडिया वाले आपको रेपिस्ट और आपके परिवार की उस भद्र महिला को धंधेवाली बताते हुए  नाम और फ़ोटो अख़बार में छाप दें तो आपको कैसा लगेगा? कैसा लगेगा? माफ़ कर पाएंगे कभी उस पुलिसवाले कोऔर उस मीडिया कोऔर उस समाज को जो इस ख़बर को चटखारे ले-लेकर शेयर करेगा?

आतंकवादी का ठप्पा लगना उतना ही अपमानजनक  और तक़लीफ़देह है जितना रेपिस्ट या वेश्या कहलाया जाना। सोचिए। महसूस कीजिए उनकी पीड़ा को जिनपर यह आरोप लगा है। उनके परिवारवालों के बारे में सोचिए एक बार।













Sunday, 8 May 2016

मदर्स डे : भारत माता के गरीब बच्चों को ही मौत की सजा क्यों?

नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली द्वारा जारी मृत्युदंड प्रोजेक्ट की रिपोर्ट के अनुसार ज्यादातर मामलों में गरीब और वंचित वर्ग के लोगों को ही फांसी की सजा होती है। इस मौके पर सुप्रीम कोर्ट के जज मदन बी लोकुर ने कहा कि भारत की आपराधिक न्यायिक व्यवस्था ध्वस्त हो गई है जिसे तत्काल सुधारने की जरूरत है।

गरीबों को सजा और अमीरों के लिए मजा
इटली की अदालत ने नवीनतम फैसले में मजबूरी में चोरी करने वाले गरीब आदमी को सजा देने से इंकार कर दिया। दूसरी ओर भारत में छुट-पुट चोरी और अपराध के आरोप में लाखों बेगुनाह जेल में सड़ रहे हैं जिनमें अधिकांश अशिक्षित और गरीब हैं। ऐसे मामलों में पुलिस तथा अदालतें कानून की मनमर्जी व्याख्या कर कठोरतम दंड देती हैं जिसके खिलाफ लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने का हौसला गरीबों के पास होता ही नहीं। दूसरी ओर 9 हजार करोड़ के कर्ज को डकार कर विजय माल्या यूरोप में मजे लेते हुए पूरी न्यायिक व्यवस्था को ठेंगा दिखा रहे हैं।

अमीरों को सुरक्षा पर गरीबों को कानूनी सहायता भी नहीं
संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत देश के हर नागरिक को सुरक्षा का अधिकार है। भारत की सबसे शक्तिशाली महिला नीता अंबानी को मोदी सरकार द्वारा वाई-कैटेगरी की सुरक्षा व्यवस्था सुरक्षा मुहैया कराई गई है, जिसके तहत 20 सुरक्षा अधिकारियों का काफिला उनके साथ रहेगा। इसी तरह से कथित अपराधियों को भी कठोर सजा या मृत्यू दंड देने से पहले क्या श्रेष्ठतम कानूनी सुरक्षा नहीं मिलनी चाहिए? एनएलयू की रिपोर्ट के अनुसार फांसी की सजा दिए गए 90 फीसदी अपराधियों को शुरुआती दौर में वकील की मदद ही नहीं मिली! इस वजह से पुलिस द्वारा दर्ज केस ही कई बेगुनाह लोगों की फांसी और माताओं की त्रासदी बन गए।



फांसी की सजा पर है कानूनी विवाद
संयुक्त राष्ट्र के अधिकांश सदस्य देशों ने  महासभा द्वारा मृत्युदंड समाप्ति के प्रस्ताव का समर्थन किया लेकिन भारत में इस पर विवाद है। पिछले हफ्ते राज्यसभा में फांसी की सजा को गैर-जरूरी और अनुचित करार देते हुए सरकार से इसे समाप्त करने कीं मांग की गई पर डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने उसका जोरदार विरोध किया। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम एवं विधि आयोग के पूर्व अध्यक्ष न्यायमूर्ति ए पी शाह ने भी मृत्युदंड पर पुनर्विचार किए जाने की आवश्यकता बतायी थी। सुप्रीम कोर्ट भी कई मामलों में यह स्वीकार कर चुका है कि फांसी की सजा देने में कई बार त्रुटियां हुई हैं जिससे लोगों को  सही न्याय नहीं मिल सका है।  

संविधान तो भारत माता के सभी लाड़लों के लिए है
सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में आर्थिक अपराधियों और सफेदपोश नेताओं को देश का दुश्मन बताया है। ऐसे गुनाहगारों के लिए कड़े दंड की बजाय उनके ऊपर राज्यों और केंद्र सरकार द्वारा वीआईपी सुरक्षा के नाम पर हजारों करोड़ खर्च किए जा रहे हैं। अगस्ता वेस्टलेंड मामले में इतनी बहस और सबूतों के बावजूद कोई गिरफ्तारी न होने से आम जनता में यही धारणा बनती है कि कानून सिर्फ गरीबों के लिए है। गरीबी, अशिक्षा और अपराध का एक भयानक दुश्चक्र है जिसे अदालतें समझने में विफल रहीं हैं, जिसकी स्वीकरोक्ति सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस लोकुर ने की है।

क्या भारत माता की शासन व्यवस्था, मदर्स डे पर संविधान के प्रभावी पालन का संकल्प लेगी, जिसमें आम जनता को भी बराबरी और न्याय मिल सके? जेलों में सड़ रहे लाखों बेगुनाह कैदियों की रिहाई करके क्या सरकार और अदालतें अभागी माताओं को मदर्स डे का गिफ्ट दे पाएंगी?

मुसलमानों को साथ लेकर सबके लिए आंदोलन, मुसलमानों के लिए सिर्फ बोलबच्चन

हम कन्हैया के साथ थे, हम रोहित वेमुला के साथ थे, हम अन्ना के साथ थे, हम सोनी सुरी के साथ थे, हम जेएनयु के साथ थे और हम रविश के साथ थे.आज आतंकवाद के नाम पर फर्जी तरीके से हमारी गिरफ्तारी हो रही है. आज हम अकेले है. हमारे साथ न कोई कन्हैया है, न कोई वेमुला, न कोई सुरी, न कोई जेएनयु और नहीं कोई रविश है. हम कल भी अकेले थे, आज भी अकेले है और शायद कल भी अकेले ही रहेंगे. हमने कल भी मजलुमों का साथ दिया था, आज भी दे रहे है और कल भी देते रहेंगे.

यह बात बलकुल सही है. यह सच सुनकर कई लोग आगबबुला भी हुए होंगे और कई स्वघोषित मुस्लिम हितचिंतको के पिछवाड़े भी जल गए होंगे. जो लोग अपने आप को फेमस करने के लिए असाम जाकर वहांके आपदाग्रस्त लोगो को वडापाँव बांटकर आये ऐसे लोग भी बेगुनाह मुसलमानों की गिरफ्तारियां और 15-20 साल बाद रिहाई के मुद्दे पर अपनी जुबाने locker  में रखे हुए है. जब कोई सोशल मीडिया पर या आमना सामना सवाल पूछता है तो कहते है हमारे हाथ में सत्ता दो हम करेंगे.  साले सब धोखीबाज है. 

रोहित वेमुला के नेशनल लेवल पर आंदोलन किया जाता है जिसमे मुसलमानों का भरपूर साथ सहयोग होता है.  कन्हेया के लिए आंदोलन किया जाता है उसके साथ भी मुसलमानों का सहयोग होता है. सोनी सोरी के लिए आंदोलन किया जाता है उसमे भी मुसलमान आगे होता है. आरक्षण के लिए आंदोलन किया जाता है, मुसलमानों को तो मिलता नहीं लेकिन दूसरो को दिलाने के लिए मुसलमानों का साथ और असहयोग होता है. जब मुसलमानों की बात आती है तो अकेला मुसलमान ही लढता है. जेएनयू के लिए आंदोलन सभी मुसलमानों का साथ सहयोग.  हर आंदोलन में, हर कार्य में मुसलमानों का साथ सहयोग होता है. लेकिन मुसलमानों के साथ ही कोई नहीं होता.

डीएसपी जिया-उल-हक़ मारा गया कोई आंदोलन नहीं.
पुणे में मोहसिन शेख की हात्या कोई आंदोलन नहीं.
अखलाख मारा गया कोई आंदोलन नहीं.
एनआईए अफसर जियाउल हक़ मारा गया कोई आंदोलन नहीं.
नंबर गिनाऊ तो हजार नाम है लेकिन एक भी आंदोलन नहीं.

सूना है करीब 52 हजार बेगुनाह मुसलमान जेल में सडाये जा रहे है. लेकिन इनके लिए कोई आंदोलन नहीं, कोई चर्चा नहीं, इस विषय पर विस्तृत जानकारी एवं प्रचार प्रसार नहीं. जब किस और जाती के एक व्यक्ति का क़त्ल होता है कई आंदोलन किये जाते है जिसमे मुसलमान की दाढ़ी टोपी सबके आगे नजर आती है. लेकिन अकेले मुसलमान के क़त्ल के लिए तो कोई नहीं आता लेकिन 52 हजार बेगुनाहों का जेल में सड़ना यानी उनके परिवार के क़त्ल से कम नहीं. लाखो लोगो के क़त्ल के बावजूद कोई आंदोलन नहीं कोई संगठन नहीं. और हर वक्त मुसलमानों को साथ लेकर होते रहे आंदोलन बेगुनाह आतंकवाद के नाम पर जेल में अपनी जिंदगियां बर्बाद करते मुसलमानों के लिए सिर्फ बोलबच्चन.........!!

Monday, 21 March 2016

सबका जमघट: चले जावेद अख्तर "अनुपम खेर" बनने

सबका जमघट: चले जावेद अख्तर "अनुपम खेर" बनने: जावेद अख्तर साहब , मुझे आपके "भारत माता की जय" बोलने पर कोई आपत्ति नहीं है , यह आपका कर्तव्य है या कि आपकी इच्छा या आपका अध...

चले जावेद अख्तर "अनुपम खेर" बनने



जावेद अख्तर साहब , मुझे आपके "भारत माता की जय" बोलने पर कोई आपत्ति नहीं है , यह आपका कर्तव्य है या कि आपकी इच्छा या आपका अधिकार, वो आप समझिए पर जैसे आप बोलने के लिए स्वतंत्र हैं वैसे ही दूसरे के बोलने की स्वतंत्रता पर सवाल मत उठाईये और "अनुपम खेर" बनने के प्रयास में पैजामें से बाहर मत होईये।
आप उर्दू अदब की मशहूर हस्ती कैफी आज़्मी के दामाद हैं तो उसी उर्दू तहज़ीब की दो हस्तियाँ जानेसार अख्तर और सफिया अख्तर के बेटे भी हैं , ये तो छोड़िए आप उर्दू की शानदार शख्सियत मुज़्तर खैराबादी के पोते भी हैं जिन पर उर्दू गर्व करती है , फिर भी आपने अपनी आज़ादी का प्रयोग करके सीना ठोक ठोक कर कहा कि "आप नमाज़ नहीं पढ़ते"।
टीवी पर आपको मैने तमाम बार देखा है सीना ठोकते हुए कि आप "नास्तिक" हैं । तो किसी ने आज तक सवाल नहीं किया आपसे कि आप नमाज़ क्युँ नहीं पढ़ते या आप इमान क्युँ नहीं लाए , क्युँकि यह आपकी आज़ादी है कि आपका इमान क्या है और कितना है।
अवसरवाद आपका प्रमुख अस्त्र रहा है इसलिए राज्यसभा के विदाई भाषण में आपने फिर से राज्यसभा में आने के लिए जो अनुपम खेर बनने की कोशिश की , उस पर भी स्पष्ट हो जाएँ कि आप जावेद अख्तर हैं अनुपम खेर नहीं । और बहुत मुश्किल है आज के दौर में जावेद अख्तर सा नाम , हिन्दुस्तान में होना ।
शाहरुख खान का नाम सुना होगा आपने ?
उन्होंने अपने घर में मंदिर बनाया है और पूरे परिवार के साथ वहाँ पूजा करते सारा जीवन फोटो खिंचाते रहे हैं , पर क्या हुआ उनका ?
देश की असहिष्णुता की लाखों लोगों ने आलोचना की पर शाहरुख खान का बोलना उनको समझा गया कि वह मुसलमान नाम के हैं।
आमिर खान ?
याद है नाम ? ब्राह्मण पत्नी का डर बता देना आजतक भारी पड़ा हुआ है उनके लिए कि बराबर करते फिर रहे हैं क्युँकि वह मुसलमान नाम के हैं। सालों तक बिना पैसे लिए Incredible India के Brand Ambassador बन कर भारत के tourism को खूब बढ़ावा दिया, सत्यमेव जयते से समाज में जाग्रति लाये पर मुसलमान होना भारी पड़ गया
खालिद उमर ?
वह भी कम्युनिस्ट ही है आपकी ही तरह जिसे 10 साल बाद पता चला कि वह मुसलमान है ।
सब तो छोड़िए, सलमान खान , देश के प्रधानमंत्री के साथ पतंगे उड़ाईं हैं , उनके सरकारी मेहमान रहे हैं ।
और जावेद अख्तर साहब ?
जो आज आप कर रहे हैं ना वो वह बाप बेटे लोग सालों से करते रहे हैं, यहाँ तक कि "गणपति" को अपने घर में स्थापित करके "गणपति बप्पा मोरया" हर साल करते रहे हैं और विसर्जन करते रहे हैं ।उनको कभी नमाज़ पढ़ते नहीं देखा गया पर गणपति की पूजा करते और विसर्जित करते हर साल देखा गया।
याकूब मेमन के फाँसी का विरोध इस देश में करोड़ों ने किया पर "सलमान खान" होना उनको भारी पड़ गया, गालियाँ खाकर मजबूरी में ट्वीट हटाने पड़े और सफाई देनी पड़ी ।
जावेद अख्तर साहब जब यहाँ बिकाऊ और उन्मादी भीड़ "अखलाक" की तरह घेर लेती है ना ? तो वह यह नहीं देखती कि आप कम्युनिस्ट हैं या "भारत माता की जय" बोलने वाले , नाम मुसलमान होना बहुत है "अखलाक" की तरह कूँच देने के लिए ।
आपको यकीन ना हो तो शाहरुख , सलमान , आमिर और खालिद उमर से पूछ लें जो आप की ही तरह बस नाम के ही मुसलमान हैं ।
इसलिए बेहतर होगा आप अनुपम खेर बनने का प्रयास ना करिए, आपको भारत माता की जय बोलना है बोलते रहिए पर आप मुझे मेरे एक सवाल का जवाब जरूर दे दीजिएगा कि संसद के पहले आपने आखरी बार "भारत माता की जय" कब कहा था ?
शायद कभी नहीं ।
ड्रामे का रचनाकार ड्रामा ही करेगा ।

Sunday, 20 March 2016

देश में चरमपंथ को लेकर दी गई फांसी में 93.5 फ़ीसदी सज़ा दलितों और मुस्लिमों को मिली है, ऐसा पक्षपात क्यों, और कैसे ??


महात्मा गांधी ने अक्तूबर, 1931 में डा. बीआर अंबेडकर के बारे में कहा था, “उनके पास नाराज़ होने, कटु होने की तमाम वजहें हैं. वे हमारा सिर नहीं फोड़ रहे हैं तो ये उनका आत्म संयम है.”इस बयान से ज़ाहिर है कि अंबेडकर और उनके समुदाय के साथ हुए अत्याचारों की पृष्ठभूमि में उनके द्वारा कटु शब्दों के इस्तेमाल को महात्मा गांधी ग़लत नहीं मानते थे. बहरहाल, मैं अभी सतारूढ़ पार्टी के ख़िलाफ़ एक दूसरे विश्वविद्यालय में छात्रों के विरोध प्रदर्शन के बारे में सोच रहा हूं.

दिल्ली में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अफ़ज़ल गुरू की बरसी के मौक़े पर हुई विरोध सभा के मुद्दे पर कुछ छात्रों के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज कराया गया है.
देशद्रोह “वह अपराध है जिसके तहत कुछ कहने, लिखने और कुछ अन्य काम करने से सरकार की अवज्ञा करने को प्रोत्साहन मिलता है.’’


पूर्वी दिल्ली से भारतीय जनता पार्टी के सांसद महेश गिरी ने इस मामले में एफ़आईआर दर्ज कराई है. उन्होंने अपनी लिखित शिकायत में इन छात्रों को संविधान विरोधी और देशद्रोही तत्व कहा है.


गिरी ने गृह मंत्री राजनाथ सिंह और मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी को भी ख़त लिखकर, “इस तरह के शर्मनाक और भारत विरोधी गतिविधियों के दोबारा नहीं होने देने के लिए अभियुक्तों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई करने की अपील की थी.”


यह हैदराबाद में हुई घटना को दुहराने जैसा लग रहा है, जहां बीजेपी ने याक़ूब मेमन की फांसी के ख़िलाफ़ छात्रों के विरोध प्रदर्शन पर सख़्त कार्रवाई की थी. इस मामले का दुखद पहलू ये रहा है कि एक छात्र ने आत्महत्या कर ली.


हालांकि जेएनयू ने कहा कि उसने इस विरोध प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी थी और उसने मामले की जांच के लिए एक कमेटी बनाई है.


लेकिन इस कमेटी में प्रतिनिधित्व को लेकर सवाल उठ रहे हैं. छात्र संघों का कहना है कि जांच कमेटी में उपेक्षित और हाशिए पर रहे समुदायों का कोई प्रतिनिधि शामिल नहीं किया गया है.


मेरे ख़्याल से भारतीय जनता पार्टी के सामने इस मामले में विकल्प था, छात्रों पर आरोप लगाने के बदले, उसे इस मुद्दे को समझने की कोशिश करनी चाहिए, जो सीधे जाति से जुड़ा पहलू है.


हैदराबाद में याक़ूब मेमन की फांसी के ख़िलाफ़ दलित क्यों विरोध प्रदर्शन कर रहे थे? जेएनयू में मुस्लिमों पर इतना ध्यान क्यों है?


जब भी किसी कमेटी से जांच कराने की बात होती है तो छात्र हाशिए पर रहे समुदायों के प्रतिनिधियों की बात क्यों करते हैं? हक़ीक़त यही है कि भारत में दलितों और मुस्लिमों को ही सबसे ज़्यादा फांसी की सज़ा दी गई है.


नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी से प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक़, मृत्युदंड पाने वालों में कुल 75 फ़ीसदी और चरमपंथ को लेकर दी गई फांसी में 93.5 फ़ीसदी सज़ा दलितों और मुस्लिमों को मिली है. ऐसे में पक्षपात का मुद्दा उभरता है.


मालेगांव धमाकों का उदाहरण देते हुए कुछ लोग यह आरोप लगाते हैं कि अगर चरमपंथी गतिविधियों में सवर्ण हिंदुओं के शामिल होने का मामला हो तो सरकार सख़्ती नहीं दिखाती है.


बेअंत सिंह के हत्यारों को फांसी देने की जल्दी नहीं है. राजीव गांधी के हत्यारों की सज़ा कम कर उसे उम्रक़ैद में तब्दील कर दिया गया है.


इन लोगों को भी चरमपंथ का दोषी पाया गया था. लेकिन सबको समान क़ानून से कहां आंका जा रहा है?


इन सबमें मायाबेन कोडनानी को छोड़ ही दें, जिन्हें 95 गुजरातियों की हत्या के मामले में दोषी पाया गया था, लेकिन वे जेल में भी नहीं हैं.


दूसरा मुद्दा आर्थिक है.
दलित और मुस्लिम ग़रीब लोग हैं. अदालत में सुनवाई के दौरान अफ़ज़ल गुरु को लगभग नहीं के बराबर क़ानूनी प्रतिनिधित्व मिल पाया था.


इन वास्तविकताओं को देखते हुए, इसमें बहुत अचरज नहीं होना चाहिए कि दलित, मुस्लिम और उनके समर्थक सरकार का विरोध कर रहे हैं. उन्हें नाराज़ होने का पूरा हक़ है.
सवर्ण इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि हर भारतीय को इस भ्रम में जीना चाहिए कि हम एक पूर्ण समाज हैं और हर किसी को इसके सामने झुकना चाहिए.


हिंदुत्व मध्यम वर्ग और उच्च वर्गों के लिए मसला है. यह आरक्षण से घृणा करता है क्योंकि उसे लगता है कि यह उनको मिल रही सुविधाओं में अतिक्रमण है.


यही वजह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरक्षण को पसंद नहीं करता और इस मुद्दे पर संघ के बयानों के चलते चुनावों में बीजेपी मुश्किल में आई थी.


प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया भी विपक्ष पर झूठ गढ़ने का आरोप रहा है. लेकिन ज़मीनी सच्चाई बिलकुल साफ़ है.


दलित अपनी आवाज़ उठा रहे हैं और अपने हक़ के लिए खड़े हो रहे हैं. इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है. अगर उनकी भाषा में असंयम हो तो भी उन्हें अपराधी की तरह से नहीं देखा जा सकता.


सरकार के लिए अहम ये है कि उनसे जुड़े, उनकी बात सुने, उनके तर्क सुने, केवल उनके नारों पर नहीं जाए.


लेख की शुरुआत में मैंने गांधी जी की बुद्धिमता का उदाहरण दिया है. उसकी तुलना हिंदुत्व के नेताओं की पहले हैदाराबाद और फिर दिल्ली में की गई कार्रवाई से करके देखिए.


हमें इस मामले पर परिपक्व समझ दिखाना चाहिए, जब तक सरकार इस दिशा में कोशिश करती भी नहीं दिखेगी तब तक हमें इस बात पर अचरज नहीं होना चाहिए कि अब तक दबे और पीड़ित रहे लोग सरकार की अवज्ञा के लिए प्रोत्साहित करने वाले काम करते रहेंगे.


(ये लेखक के निजी विचार हैं. वे एमनेस्टी इंटरनेशनल के कार्यकारी निदेशक हैं.)

संघ और भाजपा का राष्ट्रवादी पाखंड


अफजल गुरु जेएनयू में आतंकवादी है, लेकिन भाजपा पीडीपी के साथ सरकार भी बना सकती है जो अफजल गुरु को 'शहीद' कहकर महिमामंडित करती है. संघ-भाजपा को यह पता है कि वे पूरी तरह फेल हैं और उनके लिए एकमात्र आशा उनके वे तूफानी घुड़सवार हैं जो किसी को विरोध नहीं करने दे सकते. देश को उनका डरावना चेहरा नहीं दिखे इसलिए वे मीडियाकर्मियों पर हमले करते हैं.अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकताओं ने हैदराबाद और जेएनयू में ‘मुखबिर’ की तरह सक्रियता दिखाई. देश जानना चाहता है कि हरियाणा में 9 दिनों के उपद्रव के दौरान वे कहां थे? वे वहां जातीय झगड़े की आग को बुझाते हुए नहीं दिखे. क्या वे वहां भीड़ का हिस्सा थे? 


संघ-भाजपा की ‘राष्ट्रवादी’ सरकार सभी ‘राष्ट्रविरोधियों’ को प्रताड़ित कर रही है लेकिन इन ‘राष्ट्रवादी’ भारतीयों को लेकर कुछ तथ्यों पर गौर करना चाहिए. देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल के मुताबिक, यह आरएसएस और हिंदू महासभा जैसे हिंदुत्ववादी संगठन थे जो गांधी की हत्या के जिम्मेदार थे. यह कुनबा आज भी उनकी हत्या को वध कहकर महिमामंडित करता है. 14 अगस्त 1947 को आरएसएस के मुखपत्र ‘आर्गेनाइजर’ ने लिखा था, ‘बदकिस्मती से जो लोग सत्ता में आए हैं, वे हमारे हाथों में तिरंगा पकड़ा देंगे लेकिन हिंदू इसे कभी स्वीकृति व सम्मान नहीं देंगे. तीन अपने आप में अशुभ है और तिरंगे में तीन रंग हैं जो निश्चित तौर पर बुरा मनोवैज्ञानिक असर छोड़ेंगे. यह देश के लिए हानिकारक होगा.’ जिन्होंने गांधीजी को मारा, जिन्होंने आजादी के बाद तिरंगे की तौहीन की, वे ‘राष्ट्रवादी’ हैं और जो युवा भारतीय चाहते हैं कि भारतीय राष्ट्र-राज्य सबके लिए मूलभूत अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों पर अमल करे, उनकी अदालत के फैसले से पहले ही ‘आतंकवादी’ के रूप में ब्रांडिंग की जा रही है.

संघ भाजपा के जो कार्यकर्ता वंदेमातरम गा रहे हैं, उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ इसे कभी नहीं गाया. उन्होंने 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकारें बनाई थीं जबकि कांग्रेस पर प्रतिबंध लगा था. जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस सेना बनाकर भारत को आजाद कराने का प्रयास कर रहे थे तब हिंदुत्ववादी संगठनों ने मिलकर अंग्रेजी सेना के लिए ‘भर्ती कैंप’ लगाए थे. अब ये ‘राष्ट्रवादी’ लोग लोकतंत्र को नष्ट करने के लिए वंदेमातरम का इस्तेमाल कर रहे हैं. 

बंटवारा करना संघ-भाजपा नेताओं और उनकी हिंदूवादी राजनीति के जीन में है. अपनी क्रूर राष्ट्रविरोधी विचारधारा के साथ वे न सिर्फ मुस्लिमों, ईसाइयों और दलितों के खिलाफ हैं बल्कि वे बहुसंख्यक समुदाय की भी एकजुटता के लिए खतरा हैं. हरियाणा के इतिहास में यह पहली बार है जब हम देख रहे हैं कि जाट और पंजाबी के बीच गहरे तक ध्रुवीकरण हुआ है. डॉ. आंबेडकर ने बहुत पहले कहा था कि ‘हिंदुत्व की राजनीति सिर्फ लोगों को बांटती है, इस तरह वह भारत का विनाश कर रही है.’ 
संघ-भाजपा के शासकों को यह महसूस हो रहा है कि वे जनता के बड़े हिस्से का समर्थन खो चुके हैं. वे अपने विरोधियों का ध्यान दूसरी तरफ केंद्रित करना चाहते हैं. यह भी एक तरह का राष्ट्रविरोधी कार्य है. वे अपना पुराना हिंदुत्ववादी एजेंडा पुनर्जीवित कर रहे हैं
कोई नहीं जानता कि हरियाणा और भारत हिंदुत्व की राजनीति के साथ कैसे रहेंगे. उन्होंने जेएनयू को राष्ट्रद्रोहियों का अड्डा घोषित कर दिया, लेकिन हरियाणा के बारे में क्या कहेंगे जहां पर बड़े पैमाने पर लोगों की जानें गईं और संपत्तियों को तहस-नहस किया गया. जेएनयू के राष्ट्रविरोधी हरियाणा में नहीं हैं और यह सब संघ-भाजपा के शासन में हो रहा है. इतिहास हरियाणा के हिंदूवादी शासकों को कभी माफ नहीं करेगा जिन्होंने हरियाणवी लोगों को जाट, पंजाबी और सैनी आदि में बांट दिया. हमारी सेना, जो हमारे देश का गौरव है, जिसका काम सीमा की सुरक्षा करना है, वह अपने ही लोगों पर गोलियां चला रही है. 

अफजल गुरु जेएनयू में आतंकवादी है, लेकिन भाजपा पीडीपी के साथ सरकार भी बना सकती है जो अफजल गुरु को ‘शहीद’ कहकर महिमामंडित करती है. संघ-भाजपा को यह पता है कि वे पूरी तरह फेल हैं और उनके लिए एकमात्र आशा उनके वे तूफानी घुड़सवार हैं जो किसी को विरोध नहीं करने दे सकते. देश को उनका डरावना चेहरा नहीं दिखे इसलिए वे मीडियाकर्मियों पर हमले करते हैं. उन्होंने बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय भी ऐसा ही किया था. वे भाड़े के गुंडे जो मीडिया, छात्रों और अध्यापकों पर हमले करते हैं, ‘राष्ट्रवादी’ भावना की बातें करते हैं. 

जिन हिंदुत्ववादी अपराधियों ने गांधी जी को मारा, जिन्होंने मुस्लिम लीग के साथ 1942 में तब सरकार चलाई जब ब्रिट्रिश शासन ने कांग्रेस को प्रतिबंधित कर दिया था, नेताजी जब सेना गठित कर भारत को आजाद कराने की कोशिश कर रहे थे तब अंग्रेजी सेना के लिए भर्ती कैंप चलाए, भारतीय जेल से इस्लामिक आतंकी अजहर मसूद को कंधार छोड़ने गए, नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी की हत्या की, शहीदे आजम के नाम पर बन रहे एयरपोर्ट का नाम बदलकर एक आरएसएस के बिचौलिये के नाम पर रख दिया और अफजल गुरु को शहीद घोषित करने वाली पीडीपी के साथ जम्मू और कश्मीर में सरकार चला रहे हैं, वे ‘राष्ट्रवादी’ हैं. यदि ये अपराधी ‘राष्ट्रवादी’ हैं तो एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत के राजनीतिक भाग्य का अंत हो चुका है. 

संघ-भाजपा के शासकों को यह महसूस हो रहा है कि वे जनता के बड़े हिस्से का समर्थन खो चुके हैं. वे अपने विरोधियों का ध्यान दूसरी तरफ केंद्रित करना चाहते हैं. यह भी एक तरह का राष्ट्रविरोधी कार्य है. वे अपना पुराना हिंदुत्ववादी एजेंडा पुनर्जीवित कर रहे हैं. उनके गुरु गोलवलकर ने अपनी किताब ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में लिखा था कि मुस्लिम, ईसाई और वामपंथी इस देश के एक, दो और तीन नंबर के दुश्मन हैं. 

गोलवलकर की किताब ‘वी आर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ के मुताबिक, राष्ट्र पांच निर्विवादित तत्वों- देश, जाति, धर्म, संस्कृति और भाषा से बनता है. हालांकि, सावरकर की तरह उन्होंने भी संस्कृति को धर्म के साथ जोड़ा और इसे हिंदुत्व कहा. उनके अनुसार हिंदू एक महान तथा विशिष्ट राष्ट्र थे क्योंकि हिंदुओं की धरती हिंदुस्तान में रहने वाले केवल हिंदू यानी कि आर्य नस्ल के लोग थे. दूसरे, हिंदू एक ऐसी नस्ल से थे जिसके पास एक ऐसे समाज की विरासत थी जिसमें एक साझा रीति-रिवाज, साझा भाषा, गौरव और विनाश की साझा स्मृतियां थीं. संक्षेप में यह एक समान उद्भव स्रोत वाली ऐसी आबादी थी जिसकी एक साझा संस्कृति है. इस प्रकार की जाति राष्ट्र के लिए एक महत्वपूर्ण अवयव है. यहां तक कि अगर वे विदेशी मूल के भी थे तो भी वे निश्चित रूप से मातृ नस्ल में घुलमिल गए थे. उन्हें मूल राष्ट्रीय नस्ल के साथ न केवल इसके आर्थिक-सामाजिक जीवन से अपितु इसके धर्म, संस्कृति तथा भाषा के साथ एकरूप हो जाना चाहिए, नहीं तो ऐसी विदेशी नस्लें कुछ निश्चित परिस्थितियों के तहत एक राजनैतिक उद्देश्य से एक साझा राज्य की सदस्य ही मानी जा सकती हैं; लेकिन वे कभी भी राष्ट्र का अभिन्न हिस्सा नहीं बन सकतीं. यदि मातृ नस्ल अपने सदस्यों के विनाश या अपने अस्तित्व के सिद्धांतों को खो देने के कारण नष्ट हो जाती है तो स्वयं राष्ट्र भी नष्ट हो जाता है. नस्ल राष्ट्र का शरीर है और इसके पतन के साथ ही राष्ट्र का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है. इस प्रकार सावरकर और उन्हीं की तर्ज पर गोलवलकर नस्ली शुद्धता को हिंदू राष्ट्र निर्माण का आवश्यक साधन मानते थे. उनके राष्ट्रवाद में नस्लों के मिलन या अंतर्संबंधों के लिए कोई जगह नहीं थी. 

गोलवलकर के अनुसार, ‘हम वह हैं जो हमें हमारे महान धर्म ने बनाया है. हमारी नस्ली भावना हमारे धर्म की उपज है और हमारे लिए संस्कृति और कुछ नहीं बल्कि हमारे सर्वव्यापी धर्म का उत्पाद है, इसके शरीर का अंग जिसे इससे अलग नहीं किया जा सकता. एक राष्ट्र एक राष्ट्रीय धर्म और एक संस्कृति को धारण करता है तथा उसे कायम रखता है क्योंकि ये राष्ट्रीय विचार को संपूर्ण बनाने के लिए आवश्यक हैं.’  

गोलवलकर की हिंदू राष्ट्रीयता का सबसे महत्वपूर्ण अवयव नस्ल या नस्ली भावना थी, जिसे उन्होंने ‘हमारे धर्म की संतान’ के रूप में परिभाषित किया. उनके अनुसार, ‘हिंदुस्तान में एक प्राचीन हिंदू राष्ट्र है और इसे निश्चित तौर पर होना ही चाहिए और कुछ और नहीं- केवल एक हिंदू राष्ट्र. वे सभी लोग जो राष्ट्रीय यानी कि हिंदू नस्ल, धर्म, संस्कृति और भाषा को मानने वाले नहीं होते वे स्वाभाविक रूप से वास्तविक ‘राष्ट्रीय’ जीवन के खांचे से बाहर छूट जाते हैं… केवल वही राष्ट्रीय देशभक्त हैं जो अपने हृदय में हिंदू नस्ल और राष्ट्र के गौरवान्वीकरण की प्रेरणा के साथ कार्य को उद्धृत होते हैं और उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं. बाकी सभी या तो गद्दार हैं और राष्ट्रीय हित के शत्रु हैं या अगर दयापूर्ण दृष्टि अपनाएं तो बौड़म हैं.’ 


‘वे सभी लोग जो राष्ट्रीय यानी कि हिंदू नस्ल, धर्म, संस्कृति और भाषा को मानने वाले नहीं होते वे स्वाभाविक रूप से वास्तविक ‘राष्ट्रीय’ जीवन के खांचे से बाहर छूट जाते हैं… केवल वही राष्ट्रीय देशभक्त हैं जो अपने हृदय में हिंदू नस्ल और राष्ट्र के गौरवान्वीकरण की प्रेरणा के साथ कार्य को उद्धृत होते हैं और उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं. बाकी सभी या तो गद्दार हैं और राष्ट्रीय हित के शत्रु हैं या अगर दयापूर्ण दृष्टि अपनाएं तो बौड़म हैं’
बेशक गोलवलकर की यह परिभाषा पूरी तरह से हिंदू राष्ट्र के सावरकर माडल पर आधारित है और मुस्लिमों, ईसाइयों, या अन्य गैर हिंदू अल्पसंख्यकों के हिंदू राष्ट्र का हिस्सा होने के दावे को पूरी तरह खारिज करती है. गोलवलकर के अनुसार, ‘वे सभी जो इस विचार की परिधि से बाहर हैं राष्ट्रीय जीवन में कोई स्थान नहीं रख सकते. वे राष्ट्र का अंग केवल तभी बन सकते हैं जब अपने विभेदों को पूरी तरह समाप्त कर दें, राष्ट्र का धर्म, इसकी भाषा व संस्कृति अपना लें और खुद को पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में समाहित कर दें. जब तक वे अपने नस्ली, धार्मिक तथा सांस्कृतिक अंतर को बनाए रखते हैं वे केवल विदेशी हो सकते हैं, जो राष्ट्र के प्रति या तो मित्रवत हो सकता है या शत्रुवत. 

पूरी तरह से उनका हिंदूकरण या फिर नस्ली सफाया, भारत में अल्पसंख्यकों की समस्या से निपटने के लिए गोलवलकर ने यही मंत्र सुझाया था. 1925 में अपने निर्माण के बाद से ही आरएसएस ने कभी इसे अनदेखा नहीं किया. उनके अनुसार, मुस्लिमों और ईसाइयों को, जो कि बाहरी हैं, निश्चित तौर आबादी के प्रमुख जन, राष्ट्रीय नस्ल के साथ खुद को पूरी तरह समाहित कर देना चाहिए. उन्हें निश्चित तौर पर राष्ट्रीय नस्ल की संस्कृति और भाषा को अपना लेना चाहिए और अपने विदेशी मूल को भुलाकर अपने अलग अस्तित्व की संपूर्ण चेतना को त्याग देना चाहिए. अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें राष्ट्र के रहमो-करम पर राष्ट्र की सभी संहिताओं और परंपराओं से बंधकर केवल एक बाहरी की तरह रहना होगा, जिनको किसी अधिकार या सुविधा की तो छोड़िए, किसी विशेष संरक्षण का भी हक नहीं होगा. विदेशी तत्वों के लिये बस दो ही रास्ते हैं, या तो वे राष्ट्रीय नस्ल में पूरी तरह समाहित हो जाएं और यहां की संस्कृति को पूरी तरह अपना लें या फिर जब तक राष्ट्रीय नस्ल अनुमति दे वे यहां उसकी दया पर रहें और राष्ट्रीय नस्ल की इच्छा पर यह देश छोड़कर चले जाएं. 

इन ‘राष्ट्रवादियों’ ने आजादी आंदोलन में अंग्रेजों का साथ दिया और भारत को हिंदू पाकिस्तान बनाने के लिए प्रतिबद्ध रहे. आज वे जेएनयू के छात्रसंघ अध्यक्ष और अन्य छात्रों के लिए सख्त सजा की बात करते हैं, लेकिन यही ‘राष्ट्रवादी’ उस समय कुंभकरण मोड में चले जाते हैं, जब देश के दूसरे हिस्से में हिंदुत्ववादी कैडर 30 जनवरी को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ‘वध’ का उत्सव मनाता है. बेशक, संघ और भाजपा के पाखंड को कोई भी मात नहीं दे सकता.


Courtesy: Tehelkahindi.com